कश्मीर में 110 वर्षीय कश्मीरी पंडित बुजुर्ग की मौत, मुस्लिम भाइयों ने दिया अर्थी को कांधा
अब्दुल गफ्फार नामक एक बुजुर्ग ग्रामीण ने बताया कि हमारा एक दूसरे घर में खूब आन जाना था। वह मेरे बहुत अच्छे मित्र थे। उसकी मौत से मैं बहुत दुखी हूं।
श्रीनगर, राज्य ब्यूरो। दक्षिण् कश्मीर का शोपियां क्षेत्र जिसे आतंकवादियों का गढ़ माना जाता है, में वीरवार को एक वयोवृद्ध कश्मीरी पंडित की मौत पर कश्मीरियत फिर जिंदा हो उठी। कोविड-19 के संक्रमण के बावजूद बड़ी संख्या में स्थानीय मुस्लिम समुदाय के लोग दिवंगत की अंतिम यात्रा में शामिल हुए। शाेपियां के जैनपोरा इलाके में पंडित कंठ राम ने आतंकियों की धमकियों के बावजूद अपना पैतृक घर नहीं छोड़ा।
गांव में सिर्फ उनका ही एकमात्र कश्मीरी पंडित परिवार है। जीवन के करीब 110 बसंत पार कर चुके पंडित कंठ राम बीते कुछ दिनों से बीमार थे। आज तड़के वह चल बसे। उनकी मृत्यु की खबर फैलते ही पूरे इलाके में शोक की लहर दौड़ गई। बड़ी संख्या में पड़ाेसी उनके घर में जमा हो गए। जैनपोरा और उसके साथ सटे इलाकों में रहने वाले मुस्लिम समुदाय में उनका बड़ा सम्मान था।
अब्दुल गफ्फार नामक एक बुजुर्ग ग्रामीण ने बताया कि हमारा एक दूसरे घर में खूब आन जाना था। वह मेरे बहुत अच्छे मित्र थे। उसकी मौत से मैं बहुत दुखी हूं। उनका एक बेटा और चार बेटियां हैं। बेटा रमेश कुमार डाक्अर है और शोपियां मं ही क्लिनिक चलाता है। तीन बेटियों की शादी जम्मू में हुई हैऔर उनकी एक बेटी की शादी श्रीनगर शहर में हुई है। इरशाद अहमद नामक एक अन्य युवक का कहना था कि डाॅ रमेश साहब हमारे पड़ौसी हैं। पड़ोसी नहीं हमारे भाई है। उनके पिता कंठ राम जी बहुत सहृदय थे। जब स्वस्थ थे तो अक्सर हम लोगों के साथ बैठकर अपनी जिंदगी के अनुभव बांटते थे।
उन्होंने हमेशा दूसरों की मदद करने की सीख दी। आज सुबह उनके निधन की खबर के बाद गांव में शायद ही ऐसा कोई होगा जिसकी आंख से अांसू न निकले हों। उनकी अंतिम रस्मों को पूरा करने में हमसे जो बन सका, हमने किया। हमने उनके जनाजे लिए सारा बंदोबस्त किया। उनकी चिता भी तैयार की। उनके बेटे रमेश के साथ सभी ने अपनी सहानुभूति जताते हुए उसे यकीन दिलाया है कि वह यहां अकेला नहीं है। हम सभी उसके साथ हैं। आपको जानकारी हो कि 1990 की शुरुआत में आतंकियों के दबाव और धमकियों के चलते कश्मीरी पंडित समुदाय को वादी से देश के अन्य भागों में पलायन करना पड़ा था।
करीब 600 कश्मीरी पंडित परिवारों ने पलायन नहीं किया। इनमें से अधिकांश अपने गांवों से उठकर श्रीनगर में चले गए। कुछेक परिवार अपने पैतृृक गांवों में ही रहे। कश्मीर में बीते कुछ सालों के दौरान जब कभी किसी कश्मीरी पंडित की मृत्यु होती है तो उसकी अंतिम यात्रा में उसके पड़ोसी मुस्लिम जरुर शामिल हो रहे हैं।