बिखेरें होली के रंग
कहने को तो मुट्ठी भर रंग ही हैं, पर होली के दिन ऐसी छटा बिखेरते हैं कि मन धुल भी जाता है और इन रंगों में घुल भी जाता है...। वाकई होली का त्योहार सामाजिक आभार जताने की पहल है और यह पहल बेहिचक की जानी चाहिये...
कहने को तो मुट्ठी भर रंग ही हैं, पर होली के दिन ऐसी छटा बिखेरते हैं कि मन धुल भी जाता है और इन रंगों में घुल भी जाता है...। वाकई होली का त्योहार सामाजिक आभार जताने की पहल है और यह पहल बेहिचक की जानी चाहिये...
रंग चुनूं, मैं रंग बुनूं,
रंग कहूं, मैं रंग सुनूं
हर रग में मेरी रंग बहे
अलमस्त रहूं... मदमस्त रहूं...
...रंग, खुशियां लेकर आते हैं और सधे कदमों से हमें भी अपने साथ उस दुनिया में ले जाते हैं, जहां कोई स्ट्रेस, एकाकीपन या दुर्भावना नहीं होती। जीवन का कैनवास ‘लार्जर दैन लाइफ’ हो जाता है।
कुछ ‘अल्हड़’ सी होली...
बरसाने की लड्डूमार और लट्ठमार होली हो या हमारे आसपास की ठिठोली। पूरी होली की मस्ती की धुरी तो वही ‘अल्हड़पन’ है, जो सहज महसूस होता है। ढोलक की थाप पर होली गाना, गुझिया, रंग, शरारतें और उल्लास की ऊर्जा समेटे हुड़दंगों की टोली मन मोह लेती है...। अंकिता स्टेज परफॉर्मर हैं, वह कहती हैं, ‘मैं बहुत रिजर्व थी या शायद नखरीली भी। जब भी कोई ‘होली’ के वाबत कुछ कहता या प्लानिंग करता तो मैं तनावयुक्त हो जाती और मुझे हमेशा यही लगता था कि ‘ये मेरे क्लास का फेस्टिवल नहीं है...। हास्टल में आई तब जाना कि ‘मैं’ कितनी अकेली और उदास थी...। होली की छुट्टियों से पहले सब लड़कियों ने मिलकर होली मनाई और मुझे वाकई नया नजरिया मिला...। सच है कि खुशियों का कोई क्लास नहीं होता...।’
होली वह त्योहार है, जो दिल से शुरू होकर दिल तक पहुंचता है, जहां आनंद की धूनी ऐसी रमायी जाती है कि हर गांठ खुल जाती है और हर रिश्ता अपना हो जाता है। रितु की लव मैरिज थी और उनके अपने पूरी तरह उन्हें नहीं अपना पाये थे। रितु कहती हैं कि ‘मेरी शादी के बाद पहला त्योहार होली ही था...। मैंने खुद आगे बढ़ सबको होली के बहाने, मनाने की ठानी और अपनी आंखों से उस नाराजगी को दरकते देखा जो हमारी शादी से उपजी थी।’
यकीनन, मन की गांठें खोलने का बेहतरीन माध्यम है होली।
कुछ ‘अपनों’ सी होली...
गुड़गांव मेंं रहते हैं मालती और हरिशंकर उपाध्याय। एक बेटा था, जो दुर्घटनावश न रहा...। साल दर साल एकाकीपन बढ़ता रहा। मालती कहती हैं कि ‘हम अकेले थे, न हमसे कोई मिलने आता था और न ही हम कहीं जाते थे...। एक बार होली की सुबह बच्चों ने कालबेल बजाई और ज्यों ही मैंने दरवाजा खोला, उन्होने मुझे रंग से सराबोर कर दिया...। शायद 17-18 बरस बाद वह वो ‘क्षण’ था, जहां मैं थोड़ी सकपकाई, लेकिन अभिभूत हो गई बचपने की उस स्वाभाविक क्रिया पर...। रुधें गले से मैंने बच्चों को मना किया कि हम होली नहीं खेलते, पर बच्चे बेहद संवेदनशील होते हैं, मेरे इन्कार में छिपे संकोच और अकेलेपन को भांप गए। फिर होली तो क्या वे रोज के साथी बन गये...। बच्चों की वो टोली हमारी हमजोली बन गयी है और यकीन मानिये उन छोटे बच्चों ने हमें फिर कभी अकेले नहीं रहने दिया...।’
अच्छा लगता है जब कोई अंजान कुछ कदम आगे बढ़ ‘अपनेपन’ की गर्माहट दे जाता है, इससे इतर वो भी किस्से कम नहीं, जो कहने को तो बेहद करीब हैं, पर उन्हें गले लग, रंग लगाने और बधाई देने से पहले ‘सोचना’ पड़ता है... पर त्योहार तो वही सार्थक है जहां हम निर्बाध गति से आगे बढ़ें। आखिर हर त्योहार विशेषकर ‘होली’ की मूलधारणा ही ‘प्रेम’ है।
एयरफोर्स में कार्यरत हैं मणि के पति, दोनों दक्षिण भारत से हैं, पर पोस्टिंग उत्तर में होने से कुछ-कुछ होली के माहौल, मिजाज और उद्देश्य को समझते ही हैं। वह बताते हैं कि ‘हमारी कालोनी में तो सुबह से ही पुरुष और महिलाओं के अलग-अलग ग्रुप बन जाते हैं और फिर वे घर-घर जाकर सबको अपने में शामिल करते जाते हैं। सारा भेद खत्म हो जाता है कि हम भारत के किस कोने से आए हैं या होली जानते भी हैं या नहीं। बस थोड़ी ही देर बाद हम एक रंग हो जाते हैं... यही एक रंग है ‘होली’...।
परंपरा की आधुनिक बानगी
होलिका दहन, रंग खेलना और भाई दूज तक की परंपरा भले ही कुछ सिमट गई हो, पर इस त्योहार की आत्मा ‘जिंदा’ है...। आज होली ‘ग्लोबल इवेंट’ बन गई है। हर्बल कलर्स, इंस्टेंट गुझिया और प्राइवेट आर्गनाइजर्स ने इसे भव्यतम बना दिया। थोड़ी सजगता बढ़ाई है इन्फॉर्मेशन ने। अब लोग ज्यादा संजीदा हो गए हैं अपनी त्वचा, आंखों और इमेज के प्रति... पर होली की मस्ती वैसी ही है बेपरवाह और अनवरत।
दिल्ली के कोटला मुबारकपुर में रहते हैं गिरीश अग्रवाल। वह रंगों के थोक व्यापारी हैं। वह कहते हैं कि ‘विगत कुछ वर्र्षों में तो रंग की खपत तीन गुना बढ़ी है। बस क्वालिटी डिमांड का बदलाव आया है। अब लोग हर्बल रंगों को प्रमुखता देते हैं। यहां तक कि रंगों के एक्सपोर्ट मार्केट मेंं भी बढ़त हुयी है...।’
महिलाएं और बच्चे भी होली के हुड़दंग में प्रमुख पात्र हैं। मूलत: दरभंगा की रहने वाली हैं रचना, पर पति की जॉब के कारण पुणे में रहती हैं। बकौल रचना ‘घर से दूर होली व अन्य त्योहार मनाने ही पड़ते हैं, पर सोसाइटी की होली काफी हद तक उस कमी को पूरा कर देती है...। लगातार तीन दिन तक पारंपरिक के साथ आधुनिक डिशेज बनाने में हम महारत हासिल कर लेते हैं। पति भी हाथ बंटाते हैं और अगले साल और बेहतर आयोजन का संकल्प लें हम सेलीब्रेशन बंद करते हैं...।’
जर्मनी में फ्रैंकफर्ट में रहती हैं शालिनी, पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। फोन पर वह कहती हैं ‘बहुत याद आती है अपने देश की होली... वह देशी अंदाज, मस्ती की हैवी डोज। मीलों दूर वह मिठास तो नहीं, पर ‘होली’ यहां रह रहे भारतीय भी मनाते हैं। देश से दूर यहां हर देशवासी ‘एक’ हो जाता है और काफी कुछ ‘मिनी पटना, पुणे, कोल्हापुर, चंडीगढ़, दिल्ली और लखनऊ’ जैसा नजारा देखने को मिलता है।
दरअसल खुशियां परंपरा और आधुनिकता से परे ‘प्रासंगिकता’ हंै। आधुनिक होली कम समय में ज्यादा समेटने की सफल कोशिश है। आज टेक्नोलॉजी, लाइव चैट और सशक्त मेमोरी काड्र्स ने ‘होली’ को और अधिक जीवंत बना दिया है...। यकीनन हम त्योहार के रूप में जिंदगी का एक टुकड़ा मन मुताबिक जी लेते हैं।
प्रासंगिक हो होली...
-त्योहारों की सार्थकता और सरगर्भिता तभी है, जब उसका संदेश ‘ज्यों का त्यों’ रखते हुये आज के अनुसार बदलाव लाया जाए।
-होली के दिन अपनी भावनाओं को री-फिल करें, गले लग बधाई दें और रंग के बहाने हर उस रिश्ते को टटोल लें, जो जीने का स्पंदन दे।
-बिना हुड़दंग होली कैसी... जी भर खेलिए, पर आहत मत कीजिए किसी को।
- इंटरनेट पर ‘फेस्टिवल हिस्ट्री’ सर्च करने वाली पीढ़ी को त्योहार का उद्गम, उद्भव और उद्देश्य जरूर बताएं।
- ध्यान रहे, आपकी होली किसी की मुश्किलें न बढ़ा दे। मसलन घर के अंदर खेली गयी होली, अगली होली तक का जंजाल है।
-होली ‘मस्ती’ का उत्सव है, ज्यादा संवेदनशील न हों। होली खेलने वालों के मनोभावों को समझें।
- क्या करें और क्या न करेंं की लिस्ट के साथ सामाजिक ताना-बाना नहीं बुना जा सकता। नखरीलापन आपको अलग-थलग कर देगा।
- किसी के इंकार को बहाना न मानें और न ही उसे प्रतिष्ठा से जोड़ें कि ‘आज तो यह नहीं चलेगा’ बल्कि उसे आश्वस्त करें कि जोर जबरदस्ती नहीं होगी।
- होली के आयोजन में ‘सृजनशीलता’ से नया रंग भरें और ज्यादा आनंददायक अनुभव बनाएं, पर यह सब सामूहिक हो।
- टीनएजर्स को होली खेलने का समुचित दायरा बताएं। ताकि वे कुछ अनवांटेड न करें और न ही इसका शिकार बनें।
- अल्कोहल, भांग व अन्य नशीली चीजें दुष्परिणाम देती हैं... इनसे दूर रहें।
थोड़ी सी सावधानी होली के त्योहार को अविस्मरणीय अनुभव बनती है। उत्साह व उमंग से होली खेलेंं और खुद को एक ‘रंगीन स्पा’ दें।
ताकि कुछ अखरे नहीं...
अवचेतन मन की मौन कल्पना को साकार करते हैं हम ‘होली’ पर। जी भर हम रंग लगाते हैं हर रिश्ते को... लेकिन चहारदीवारी के भीतर के ये रिश्ते कभी जीजा तो कभी नन्दोई तो कभी देवर बन ऐसी चोट देते हैं कि ‘उफ’ भी नहीं निकलती...। बस मन मसोसकर ‘छोड़िये भी’ की मनुहार करती रह जाती हैं बहुत सी महिलायें...। अपनी यौन कुंठा को चमकीले रंगों में मिलाकर जब होली खेली जाती है तो वितृष्णा का ऐसा रंग छोड़ती है कि साल दर साल का सफर भी उसे फीका नहीं करता...। ध्यान रहे ‘होली’ उस संवेदना और भावना का आधार है, जहां ‘प्रेम’ उपजता है, उसे यूं बदरंग नहीं करना चाहिए।
(लेखिका साइकोलॉजिकल काउंसलर व कार्पोरेट ट्रेनर हैं)
डॉ. लकी चतुर्वेदी बाजपेई