उस एक गोल ने मुझे एक नई पहचान दिलाई: अशोक ध्यानचंद
आगामी हॉकी विश्व कप में भारतीय टीम की संभावनाओं और अन्य मुद्दों पर अशोक ध्यानचंद से खास बातचीत
नई दिल्ली, उमेश राजपूत। भारतीय हॉकी टीम ने सिर्फ एक बार 1975 में विश्व कप खिताब जीता है। इस विश्व कप में वैसे तो पूरी टीम का अहम योगदान था, लेकिन भारत को खिताब दिलाने वाला गोल अशोक ध्यानचंद की स्टिक से निकला था। हॉकी का खेल उनकी रगो में दौड़ता है।
वह सर्वकालीन महान हॉकी खिलाड़ी ध्यानचंद के बेटे और रूप सिंह के भतीजे हैं। परिवार के इतने बड़े नामों ने उन्हें हॉकी की विरासत को आगे ले जाने की प्रेरणा दी। आगामी हॉकी विश्व कप में भारतीय टीम की संभावनाओं और अन्य मुद्दों पर अशोक ध्यानचंद से खास बातचीत की। पेश हैं प्रमुख अंश
घरेलू सरजमीं पर विश्व कप खेलना भारतीय टीम के लिए कितना बड़ा मौका या चुनौती है?
1971 से जब हॉकी विश्व कप की शुरुआत हुई है, हमने सिर्फ तीन पदक जीते हैं और तीनों ही पहले तीन विश्व कप में हासिल हुए। 1975 में स्वर्ण जीतने के बाद हम कोई पदक नहीं जीत सके। यह भारतीय टीम के लिए अब बड़ी चुनौती है कि वह अब अपने आप को घरेलू सरजमीं पर साबित करे।
क्या उम्मीद करते हैं कि भारतीय टीम कहां तक पहुंच सकती है?
आज हॉकी में हमारी जो स्थिति है उसे देखते हुए हमारा पहला लक्ष्य पदक तालिका में पहुंचना होना चाहिए। हम कुछ ही पलों में हाथ आया हुआ मैच गंवा देते हैं। ऐसे में हमें शुरू से लेकर अंत तक अपनी मारक क्षमता, रक्षापंक्ति और रणनीति पर लगातार मजबूती के साथ काम करना होगा, तभी हम कोई पदक जीत सकते हैं।
हमारी टीम ने पिछले कुछ समय में अच्छा प्रदर्शन किया है और उसे देखते हुए मैं उम्मीद करता हूं कि हमारी टीम भारतीय हॉकी को उसका खोया हुआ सम्मान वापस दिलाने में सफल होगी।
विश्व कप से ठीक पहले पीआर श्रीजेश की जगह अचानक से मनप्रीत सिंह को कप्तान बनाना कितना सही है?
अचानक से बदलाव करना ठीक नहीं होता है। हर कोई चाहता है कि वह विश्व कप में कप्तानी करे। पीआर श्रीजेश ने कप्तान के रूप में अच्छा काम किया है। अब उन्हें कप्तानी से हटा दिया गया। इसकी कसक उनके दिल में जरूर होगी।
टीम खिताब जीतती है तो कप्तान का नाम होता है। लेकिन, अब विश्व कप में कप्तानी करने का सम्मान मनप्रीत सिंह को मिला है। हालांकि, हॉकी में कप्तान की भूमिका मैदान के अंदर के बजाये मैदान के बाहर ज्यादा महत्वपूर्ण होती है।
हरेंद्र सिंह काफी भाग्यशाली कोच माने जाते हैं। उनकी कोचिंग में जूनियर टीम ने विश्व कप जीता, जबकि महिला टीम ने एशिया कप जीता। क्या उनका जादू यहां भी चलेगा?
हरेंद्र सिंह सहायक कोच या कोच के रूप में 2010 से भारतीय हॉकी से जुड़े हुए हैं। वह काफी अनुभवी हैं। अच्छे विश्लेषक हैं। काफी मेहनती हैं। उनके अंदर हॉकी के स्तर को ऊंचा उठाने का जज्बा है। हमारे लिए यह गर्व की बात है कि हमारी टीम विश्व कप में उनकी कोचिंग में खेल रही है। वह अच्छे परिणाम दे रहे हैं। मुझे उन पर विश्वास है।
भारतीय टीम को सरदार सिंह, रुपिंदर पाल सिंह और एसबी सुनील की कमी खल सकती है?
बिलकुल। कभी-कभी मैच में ऐसा मोड़ भी आता है जब कोई सीनियर खिलाड़ी अपने अनुभव से अपनी टीम को मुश्किल हालात से बाहर निकालता है। लेकिन, अब हमें अब उन्हें खिलाडि़यों पर भरोसा रखना होगा, जिन्हें हॉकी इंडिया ने इस विश्व कप के लिए जिम्मेदारी सौंपी है। इन खिलाडि़यों के लिए भी यह अपनी काबिलियत को दिखाने का अच्छा मौका है।
विश्व कप में भारत को एकमात्र खिताबी जीत आपके गोल के दम पर हासिल हुई थी। उस समय की यादों को साझा करना चाहेंगे?
1975 के फाइनल में किस्मत मुझ पर मेहरबान हुई और भारत को खिताब जिताने वाला गोल मेरी स्टिक से निकला। उस फाइनल से पहले मेरी पहचान ध्यानचंद के बेटे के रूप में ज्यादा थी, लेकिन उस गोल ने मुझे भारतीय हॉकी में एक नई पहचान दिलाई।
इससे पहले हम 1973 का फाइनल हारे थे। मेरे दिल में उस हार की कसक थी। मैं 1975 के विश्व कप को स्वर्ण पदक के लिए याद करता हूं तो 1973 के विश्व कप को स्वर्ण पदक से चूकने के लिए याद करता हूं।
1975 में जब हम कुआलालंपुर पहुंचे तो जिस होटल में सभी टीमें ठहरी थीं वहीं सामने ही लॉबी में विश्व कप की ट्रॉफी डिसप्ले में रखी हुई थी। मैं कमरे में जाने के बजाये लॉबी में ही रुक गया और उस ट्रॉफी को करीब से निहारने लगा।
मैंने खुद से वादा किया कि इस ट्रॉफी को यहां से लेकर जाना है। हमारी टीम ने टूर्नामेंट में अपना सब कुछ झोंक दिया और खिताब जीतने में सफल हुए। संयोग से हम फाइनल में पाकिस्तान के खिलाफ 1-1 से बराबरी पर चल रहे थे। इसके बाद मेरे गोल से हमने मैच 2-1 से जीता।