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लुप्त हो रही हिमाचल की इस कला को फिर मिलने लगी पहचान

हिमाचल में लुप्त हो रही काष्ठकला को अब सिरमौर में नवजीवन मिलने लगा है, यहां करोड़ों की लागत से इस शैली में तीन मंदिरों का निर्माण किया जा रहा है।

By BabitaEdited By: Published: Mon, 04 Feb 2019 12:24 PM (IST)Updated: Mon, 04 Feb 2019 12:24 PM (IST)
लुप्त हो रही हिमाचल की इस कला को फिर मिलने लगी पहचान
लुप्त हो रही हिमाचल की इस कला को फिर मिलने लगी पहचान

राजगढ़, जेएनएन। प्रदेश की संस्कृति को जीवित रखने में काष्ठकला का बहुत बड़ा योगदान है। हालांकि सरकार की उदासीनता के कारण काष्ठकला को सहेजने वाले कलाकार अब न के बराबर रह गए हैं। यह कला हमारे सामाजिक जीवन का तब तक खास हिस्सा बनी रही, जब तक क्षेत्र में पौराणिक शैली में मंदिर बनते रहे। मगर जैसे ही कंकरीट से बने आधुनिक मंदिरों ने प्रवेश किया, न तो काष्ठकला बची और न ही काष्ठकला के बेहतरीन नमूनों से निर्मित हमारे मंदिर।

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जिला सिरमौर में अब लुप्त होती काष्ठकला को नया जीवन मिलने लगा है। इसके कारण काष्ठ कलाकारों की उपयोगिता बढ़ने लगी है। प्रदेश में करोड़ों की लागत से इस शैली में मंदिर निर्मित होने लगे हैं। राजगढ़ क्षेत्र की बात की जाए तो इस समय तीन मंदिरों के जीर्णोद्वार में पूरी तरह काष्ठकला का प्रयोग किया जा रहा है। इन मंदिरों में शिरगुल मंदिर शाया, खलोग देवता पिड़ियाधार तथा झांगण गांव का स्थानीय देवता मंदिर शामिल है। इन मंदिरों में जिला शिमला, सिरमौर एवं मंडी के कलाकार दिनरात एक किए हुए हैं, जो इन मंदिरों का काठकुणी शैली में निर्माण करने में लगे हैं। कभी इन मंदिरों को निर्मित करने का जिम्मा विशेष जाति के विशेष खानदान के पास हुआ करता था, जो अब नाम के खानदान रह गए हैं। उन्होंने काष्ठशिल्प छोड़ अन्य व्यवसाय अपना लिए हैं, ताकि वे अपने परिवार का पालन-पोषण कर आधुनिकता भरा जीवन बिता सके।

यदि इस कला को हाशिये पर ले जाने का दोष सरकार पर दे तो कोई दोराय नहीं होगी। सरकार ने कला, भाषा एवं संस्कृति विभाग खोल तो रखा है, लेकिन सरकार उस विभाग को आवश्यक बजट ही आवंटित नहीं करती। बजट के अभाव में वे ऐसे कलाकारों को कैसे प्रोत्साहित करे, जो अभी भी गुमनामी के अंधेरे में अपनी काष्ठकला को बचाए हुए हैं। प्रो. एमसी सक्सेना ने अपने स्तर पर प्रयास करते हुए राजगढ़ क्षेत्र के काष्ठशिल्पी शेरजंग चौहान को स्थानीय लोगों को प्रशिक्षण देने का सुझाव दिया था, जिसके फलस्वरूप उन्होंने अपने स्तर पर तीन शिष्यों को काष्ठशिल्प की बारीकियों से अवगत करवाया तथा कई नमूने भी बनवाए।

इस गुरु-शिष्य परंपरा को प्रोत्साहन देने के लिए भाषा एवं संस्कृति विभाग ने केंद्र सरकार को उक्त आशय के प्रोजेक्ट भी भेजे हैं। शेरजंग चौहान ने केंद्र सरकार से मांग की है कि वे मंदिरों को पारंपरिक शैली में बनवाने पर अनुदान दे तथा काष्ठकला को प्रदेश में फिर से पहचान दिलाने के लिए गुरु-शिष्य परंपरा को उचित मानदेय के साथ आरंभ करे।


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