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क्या अब चुक गया है दलाई लामा का संघर्ष

तिब्बती मुद्दा अब राजनीतिक आजादी के लिए संघर्ष नहीं रहा है। साठ साल पहले तिब्बत से पलायन करने वाले धर्मगुरु का संघर्ष मूलत चीन से आजादी के लिए था।

By Babita kashyapEdited By: Published: Sat, 06 Jul 2019 09:34 AM (IST)Updated: Sat, 06 Jul 2019 09:34 AM (IST)
क्या अब चुक गया है दलाई लामा का संघर्ष
क्या अब चुक गया है दलाई लामा का संघर्ष

शिमला, नवनीत शर्मा। तिब्बत की आजादी के लिए तिब्बतियों की आवाज धर्मगुरु दलाई लामा का संघर्ष क्या शिथिल हो गया है? क्या यह समर्पण की ओर जा रहा है? अपने जन्मदिन से दो दिन पूर्व उन्होंने यह कह कर अपनी मांग में लगातार आए बड़े बदलाव की ओर इशारा कर दिया है। उन्होंने कहा है कि तिब्बती मुद्दा अब राजनीतिक आजादी के लिए संघर्ष नहीं रहा है। साठ साल पहले तिब्बत से पलायन करने वाले धर्मगुरु का संघर्ष मूलत: चीन से आजादी के लिए था। बीच में यह पूर्ण आजादी नहीं, स्वायत्तता की मांग में बदल गया और अब एक बयान में यह स्वायत्तता के लिए भी नहीं रहा।

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अब केवल, ‘सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषायी पहचान’ की मांग पर केंद्रित हो गया है। उनका यह मानना भले ही ठीक हो कि अकेली राजनीतिक स्वतंत्रता ही जनता को खुशी नहीं दे सकती, लेकिन इससे दुनियाभर के तिब्बती लोगों को यही संदेश गया है कि दलाई लामा अब सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषायी पहचान पर ही प्रसन्न रहेंगे।

सवाल यह है कि चीन की नीतियों के आगे तिब्बत का आजतक का संघर्ष भले ही नक्कारखाने में तूती की आवाज रहा हो, नई पीढ़ी के कुछ उग्र तिब्बती आजादी से कम में सहमत नहीं रहे हैं। कई तिब्बती युवाओं और भिक्षुओं का आत्मदाह इसका साक्षी रहा  है। दलाई लामा की सोच में आए इस बदलाव से क्या तिब्बती सहमत होंगे, यह कहना कठिन है लेकिन यह रुख उनके मध्यमार्ग रुख से भी नीचे है।  

यह अब मध्यमार्ग नहीं रहा। जहां तक हिमाचल में बसे तिब्बतियों की बात है, वे यहां प्रसन्न हैं। बेशक अमेरिका से मिलने वाली मदद में कटौती हो चुकी है लेकिन कई देश अब भी गोम्पाओं यानी मोनास्ट्री को आर्थिक मदद दे रहे हैं। उस पीढ़ी के लोग बहुत कम बचे हैं जो चीन से भारत में दलाई लामा के साथ 1959 में पहुंची थी। विदेशी गाड़ियों और जीवन के ऐश-ओ आराम के संसाधन यही उपलब्ध हैं। धर्मशाला

तिब्बती में धांसू हो चुका है, झिकली भेठ ताशी जोंग है और मैकलोडगंज मौलागंज बन गया है। 

जहां तक चीन की बात है, उसने कभी अपने परों पर पानी नहीं पड़ने दिया है। उसका तो दावा यहां तक है कि अगला दलाई लामा वही होगा जिसे चीन चाहेगा...। सवाल यह है कि जो चीन, दलाई लामा चुने जाने की प्रक्रिया तक को नकारता है, वह क्या तिब्बती संस्कृति, धर्म और भाषा के प्रति करुणा दिखाएगा? चीन के किसी भी कदम से ऐसे संकेत नहीं मिलते हैं, ऐसे में दलाई लामा किस आशा के आधार पर राजनीतिक आजादी या स्वायत्तता की मांग छोड़ने तक आ गए हैं, यह उन तिब्बतियों को समझ में आएगा? बेशक दलाई लामा अपनी राजनीतिक शक्तियां छोड़ चुके हैं और राजनीतिक फैसले निर्वासित तिब्बती सरकार के प्रधानमंत्री और उनकी सरकार ही करते हैं पर इसमें कोई संदेह नहीं कि दलाई लामा से ऊपर तिब्बती मानस में कोई नहीं। 

आज दलाई लामा के जन्मदिन पर यह सवाल बनता है कि यह करुणा चीन के प्रति है या तिब्बती संघर्ष के प्रति? क्या इतने वर्षों का अपमान करुणा में बदल जाता है?


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