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Article 370: पार्टी पहरे के बावजूद कश्मीर पर खुले कुछ हाथ

आम आदमी खुश था प्रसन्न थे विस्थापित कश्मीरी पंडित...लेकिन चुप थे कांग्रेस के बड़े नेता। लेकिन देश के कुछ मौलिक प्रश्नों के हल मिलने पर कांग्रेस के ही कई नेता चुप न रह सके।

By Babita kashyapEdited By: Published: Thu, 08 Aug 2019 08:41 AM (IST)Updated: Thu, 08 Aug 2019 08:43 AM (IST)
Article 370: पार्टी पहरे के बावजूद कश्मीर पर खुले कुछ हाथ

शिमला, नवनीत शर्मा। कश्यपमेरु यानी कश्मीर को जिस अनुच्छेद 370 अके कारण अलगाव की घाटी बना दिया गया था...उसमें दमदार संशोधन हो गया। कश्मीर केवल एक भौगोलिक स्थान नहीं है, ऐसा नमक है जो हिमाचल प्रदेश से कन्याकुमारी तक और कच्छ से मेघालय तक अपने होने की अनुभूति करवाता है। यह वही कश्मीर है, जहां ललद्यद जैसी संत कवयित्री हुईं... सम्राट ललितादित्य जैसे राजा हुए जिनका साम्राज्य ईरान और चीन तक था... यह वही कश्मीर है, जो हमें बॉलीवुड में बाद में दिखा, उससे पहले कालिदास के ‘मेघदूत’ और ‘कुमारसंभव’ में दिखा... बल्कि उससे भी पहले कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ की आठों तरंगों में दिखता है...जहां मां क्षीर भवानी अब भी आशीर्वाद देती हैं... बेशक उसकी संतानें कश्मीरी पंडित होने का संताप भुगतती रही हैं...जहां वितस्ता ने अपने प्रवाह से संस्कृति को सींचा है... जहां ‘हिंद की चादर’ गुरु तेग बहादुर जी अपने नौ वर्षीय पुत्र गुरु गोबिंद सिंह के कहने पर औरंगजेब से भिड़ गए थे... कि वह कश्मीरी पंडितों को इस्लाम कबूल करने पर बाध्य न करे... शहीद हो गए थे।

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इसी कश्मीर पर टेढ़ी नजर करने वालों के खिलाफ हिमाचली सपूत, पहले परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्मा से लेकर कैप्टन विक्रम बतरा तक एक लंबी फेहरिस्त है। जाहिर है, सत्तर वर्ष से जड़ें जमा चुके फोड़े की शल्य क्रिया में चीखें कई तरफ से उठनी थी। उठीं! सबने प्रतिक्रियाएं भी दीं। अधिसंख्य पक्ष में आए... कुछ प्रतिपक्ष में आए। लेकिन जिस हिमाचल प्रदेश के हर दूसरे घर से एक व्यक्ति सेना में हो, वहां की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के बड़े नेता मुंह में दही जमाए बैठे रहें, यह विचित्र दृश्य रहा है। राज्यसभा ने मुहर भी लगा दी, लेकिन न प्रदेशाध्यक्ष बोलने को तैयार हुए और न विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता। आम आदमी खुश था, प्रसन्न थे विस्थापित कश्मीरी पंडित...लेकिन चुप थे कांग्रेस के बड़े नेता। लेकिन देश के कुछ मौलिक प्रश्नों के हल मिलने पर कांग्रेस के ही कई नेता चुप न रह सके।

हालिया लोकसभा चुनाव में कांग्रेस में गए भाजपा के बड़े नेता रहे सुरेश चंदेल ने सबसे फेसबुक पर केंद्र सरकार को बधाई दी। जवाली से विधायक रहे नीरज भारती ने भी प्रधानमंत्री को बधाई दी। शिमला ग्रामीण से कांग्रेस के युवा विधायक और पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के पुत्र विक्रमादित्य सिंह ने भी मोदी सरकार के फैसले को सराहा। दूसरे दिन कांग्रेस सरकार में शहरी विकास मंत्री रहे सुधीर शर्मा ने भी ‘पहले देश, फिर पार्टी और फिर परिवार’ की बात कहते हुए अनुच्छेद 370 को हटाए जाने का स्वागत किया। सुजानपुर के कांग्रेस विधायक राजेंद्र राणा ने भी मोदी सरकार के फैसले का समर्थन किया। कांग्रेस का यह परिदृश्य केंद्रीय स्तर पर और पूरे देश में था लेकिन हिमाचल प्रदेश में इसकी बानगी बहुत करीबी से देखी गई। पार्टी लाइन की दिक्कत कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष कुलदीप सिंह राठौर की इस बात से समझी जा सकती है, ‘अभी तक केंद्र से कोई निर्देश नहीं आए हैं। जैसा पार्टी कहेगी, वैसा कहेंगे।’

सवाल है कि किससे आने थे निर्देश? क्या कार्यकारी अध्यक्ष मोती लाल वोरा से? सारा देश टीवी देख रहा था। पार्टी की लाइन तो राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने भी साफ कर थी जब वह कभी रुआंसे और कभी आक्रामक होकर इस संशोधन का विरोध कर रहे थे। उनके द्वारा किए गए विरोध में बेशक उनकी निजी पीड़ा भी थी लेकिन उनका मत स्पष्ट था। क्या राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता को हिमाचल कांग्रेस अपना नेता नहीं मानती? और अगर अब भी केवल राहुल गांधी के इशारे का ही इंतजार था तो क्या यह समझें कि अध्यक्ष पद को छोड़ चुके राहुल गांधी बेशक पार्टी भी छोड़ दें, पार्टी उन्हीं के इर्दगिर्द घूमेगी? यदि यही सच है तो कांग्रेस को अपने भीतर देखने की जरूरत है।

हिमाचल प्रदेश में विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस के कई ध्रुव हो चुके हैं। बीते दिनों हिमाचल निर्माता के रूप में जाने जाते प्रथम मुख्यमंत्री डॉ. यशवंत सिंह परमार की जयंती को रुतबा देने और पाठयक्रम में उनके कृतित्व को शामिल करने का बड़ा दिल मुख्यमंत्री ने दिखाया लेकिन कांग्रेस अपने ही नेता की जयंती पर एक न हो सकी।

यही कारण है कि वह उस भाजपा से टकरा नहीं पा रही है, जिसके संगठन में भी सुगबुगाहटें साफ सुनी जा सकती हैं। भाजपा के भीतर कांगड़ा से इंदु गोस्वामी, रमेश धवाला के मुद्दे और शिमला स्थित महत्वपूर्ण पदाधिकारी को बदले जाने की चर्चाएं भी रही हैं। लेकिन इन विषयों पर कांग्रेस तब बात करें जब वह अपनी दलदल से निकले। विचित्र यह है कि हिमाचल में कांग्रेस अपने भीतर से दीपेंद्र हुड्डा और मिलिंद देवड़ा के स्वरों को सुधीर शर्मा, विक्रमादित्य सिंह और सुरेश चंदेल जैसे स्वरों में नहीं सुन पा रही है। हिमाचल कांग्रेस को अपने वजूद पर गौर करना चाहिए, यह लोकतंत्र के हक में ही होगा। रही तीसरे दलों की बात तो वह अब इससे अगली धाराओं की बात भी उठा रहे हैं जहां हिमाचल प्रदेश को विशेष दर्जा मिला है। लेकिन वे भूल जाते हैं कि हिमाचल के साथ कश्मीर का इतिहास किसी तरह नत्थी नहीं होता। यह दो विधान और दो झंडों वाला प्रदेश नहीं, अपितु हर कदम पर देश के काम आने वाला राज्य है जिसकी अपनी विशिष्ट संस्कृति और भौगोलिक स्थिति है। 

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