आखिर कुछ तो रखा है नाम में
हिमाचल कुछ दिन से एक नए संवाद का साक्षी बन रहा है जहां शिमला या श्यामला, डलहौजी या सुभाष नगर, और ऊना या ऊना साहिब...जैसी बहस मुखर हुई।
शिमला, नवनीत शर्मा। समाज निष्प्राण या विवेकहीन नहीं है...इसे तसदीक करने के लिए संवाद के अवसर और उनमें भी गुणवत्ता की आवश्यकता होती है। हिमाचल प्रदेश कुछ दिन से एक नए संवाद का साक्षी बन रहा है। यह संवाद बेशक विवाद की ओर भी गया। हां, इसकी परिणति एकालाप में नहीं हुई, यह एक उजला पक्ष अवश्य है। शिमला या श्यामला, डलहौजी या सुभाष नगर, नूरपुर अथवा वजीर राम सिंह पठानिया नगर और ऊना या ऊना साहिब...जैसी बहस मुखर हुई। वास्तव में हरियाणा में गुड़गांव के गुरुग्राम हो जाने और उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के प्रयागराज हो जाने के बाद इधर भी सवाल उठे, चेतना जागी, यह स्वाभाविक था।
स्वास्थ्य मंत्री ने कह दिया कि शिमला को श्यामला करने पर भी विचार हो सकता है। इस पर जनमानस ने चर्चा की चादर ओढ़ कर करवट ली और हिमाचली टियाला या चौपाल सज गई। जाहिर है, ख्याल का इजहार काबीनामंत्री ने किया था, अपना पक्ष रखना प्रतिपक्ष का भी स्वाभाविक दायित्व था। विधानसभा में विपक्ष के नेता मुकेश अग्निहोत्री ही नहीं, पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के कद्दावर नेता वीरभद्र सिंह ने भी चेताया कि ऐसा न करें। अंतत: मुख्यमंत्री ने घोषणा की कि सरकार का शिमला का नाम बदलने का कोई इरादा नहीं है। लेकिन तब तक एक चिंगारी सुलग उठी थी। तब तक ये सवाल उठ चुके थे कि ‘सरकार वास्तविक मुद्दों पर चर्चा करे, काम करे, नाम बदल कर क्या होगा?’ ‘अगर इससे अंग्रेजों की गंध आती है तो ब्रिटिशकाल के पत्थर भी उखाड़े जाएं आदि....।’ यह समझना चाहिए कि हमारी ही धरती पर हमारे ही रक्त से बनी किसी धरोहर को हटाने की मांग को कोई भी नाजायज ही कहेगा।
यह सरकार हो या समाज, शासन हो या प्रशासन, सबकी नजर में सिर्फ प्राथमिकताएं रहनी चाहिए। रोजी रोटी के सवाल, रोजगार के सवाल रक्तबीज हैं, हमेशा उठते आए हैं, उठते रहेंगे।
लेकिन क्या इतिहास का अर्थ पाठ्य पुस्तकों में लिखे कुछ सबक रट कर परीक्षा केंद्र तक याद रखना भर है? क्या संस्कृति का अर्थ केवल नाचना या गाना है? क्या उसके संदेशों और निहितार्थों को समझना आवश्यक नहीं है? अपने इतिहास, गौरव या पहचान के प्रति आग्रही होना गुनाह है? बात शिमला या श्यामला की नहीं है। ऐसे तथ्य नगण्य हैं कि शिमला कभी श्यामला रहा है लेकिन डलहौजी का नाम सुन कर 1857 की चीखोपुकार क्या भारतीय जनमानस को याद नहीं रहनी चाहिए? क्या यह वह स्थिति नहीं है कि अपने अत्याचारी से ही मोहब्बत हो जाए? धमेरी महज इसलिए नूरपुर हो जाए कि वहां कुछ दिन नूरजहां आकर ठहरी थी? नूरजहां का याद रहना उतना बुरा नहीं है जितना अंग्रेजी शासकों के खिलाफ आवाज उठाने वाले एक युवा विद्रोही वजीर राम सिंह पठानिया को भुला दिया जाना। मंडी अगर मांडव्य ऋषि से उतरी है तो उससे किसी को भी समस्या नहीं है। शिमला भी चलेगा लेकिन अगर कोई समाज यह चाहता है कि किसी स्थान का नाम परिवर्तन करके उसके गर्व की रक्षा होती है, उसकी सोच उसकी संस्कृति की जड़ों का पता देती है तो इसमें बुरा क्या है?
हिमाचल प्रदेश में जारी इसी बहस के मद्देनजर आंखों में अचानक राजा हरि सिंह की बसाई गुलेर रियासत घूम गई। कांगड़ा कला के चितेरे नैनसुख और माणकू भी दिखे...अकड़े हुए ब्रश लेकर खड़े थे और रंग सूख चुके थे। जैसे दिल्ली में आखिरी और कमजोर बादशाह बहादुर शाह जफर दिखाई देते थे, वैसे ही गुलेर के अंतिम शासक राजा बलदेव सिंह दिखाई दिए। ‘लैप्स की नीति’... ‘लैप्स की नीति’ को बुदबुदाते हुए। गुलेर पहुंचें तो सीबा रियासत भी याद आनी थी। फिर पटल पर कुटलैहड़ रियासत भी कांपी....और फिर कांगड़ा जहां के राजा संसार चंद की वीरता और कला प्रेम के किस्से आज भी त्रिगर्त की याद दिलाते हैं। और पता नहीं कितनी रियासतें थी देशभर की। इन सबके खलनायक की तरह याद आया लॉर्ड डलहौजी! झांसी की रानी का खलनायक! लैप्स की नीति को जोर शोर से लागू करने वाला और देश के अलावा इन हिमालयी रियासतों को हड़पने वाला!
शिमला को श्यामला करने के विचार पर तो बहस हो गई, हैरत यह है कि ईस्ट इंडिया कंपनी का गवर्नर जनरल रहा एक निर्दयी व्यक्ति अब भी एक पर्यटन स्थल पर बड़ी ठसक के साथ काबिज है। ये तर्क पुराने हो चुके हैं कि रेल नेटवर्क के विस्तार के लिए डलहौजी की भूमिका थी। जी, बिलकुल थी! लेकिन भारत में रेलवे का जाल भारतीयों की आजादी के लिए नहीं बिछाया गया था, बल्कि अपने लाभ के लिए बिछाया गया था। ऊना को ऊना साहिब करने से भी बाकी काम रुक जाएंगे, ऐसी कोई आशंका नहीं है। जहां संभव है... जहां कहीं भी अपनी चेतना, स्वतंत्रता और प्रभुता पर कोई खलनायक काबिज नहीं है, इतिहास का विपरीत हवाला शिकस्त का नासूर नहीं बना है, वहां ऐसी कोई जरूरत नहीं है। जहां लोग सहमत हों, वहां नाम परिवर्तन से कोई नुकसान होने वाला नहीं है। बुरा तब लगता है कि सारे नुकीले या भोथरे तर्क किसी विचार को ही ध्वस्त करने पर उतर आएं।
बेशक भारत निर्वासित तिब्बतियों के लिए गुरु है, लेकिन मैक्लोडगंज को मौलागंज और धर्मशाला को धांसू करना उन्हें आता है। वे शरणार्थी हैं...आश्रय लेकर अपनी संस्कृति को प्रश्रय देने का यह विरला ही उदाहरण है।