मोदी और भाजपा के साथ हिमाचल भी जीता, कई कोणों से दर्ज की जीत
हिमाचल में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का अथक प्रचार अभियान सवा साल में जनता के बीच सरकार को ले जाने की मुहिम भी कारगर रही।
शिमला, नवनीत शर्मा। हिमाचल का जनादेश कई कुछ कहता है। सुबह से बनते आ रहे रुझान दलीय दृष्टि से तो भाजपा की जीत दर्ज कर ही रह थे, लेकिन इससे इतर भी हिमाचल ने कई कोणों से जीत दर्ज की है। मतदान प्रतिशत के संदर्भ में, जीत के अंतर के संदर्भ में। हमीरपुर से कांग्रेस प्रत्याशी राम लाल ठाकुर नयनादेवी विधानसभा हलके में अपनी गृह पंचायत से ही पिछड़ गए। इनके प्रचार की शुरूआत में दावा था कि, ‘इस बार अनुराग को घर बिठाना है...।’
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सुखराम, जिन पर ‘चाणक्य’ की उपमा से कई लोगों ने मेहरबानी की...उनके गृह क्षेत्र में ही पोता पिछड़ गया...। यानी लोग समझ गए हैं कि अवसरवादिता और सपनों के लिए कोई स्थान नहीं है मंडी जैसे जागरूक क्षेत्र में। इधर, पौने चार लाख के करीब गद्दी वोट बताए गए थे कांगड़ा-चंबा संसदीय क्षेत्र में, और साढ़े चार लाख के करीब ओबीसी वोट...फिर भी काजल को अपने ही विधानसभा क्षेत्र में पिछड़ना पड़ा...। कहा गया था, ओबीसी के दम पर काजल भारी रहेंगे। लेकिन कांगड़ा की जनता ने भी बता दिया कि जातिवाद या क्षेत्रवाद के लिए कोई स्थान नहीं है।
हमीरपुर में तीन बार के सांसद सुरेश चंदेल के कांग्रेस में जाने से किसका लाभ हुआ, यह भी मतदाता ने स्पष्ट कर दिया है। कुल मिलाकर दो पुराने सांसद बड़े अंतर से दोबारा जीत गए। जो दो नए चेहरे थे, वे भी बड़े अंतर से जीत गए।
प्रश्न यह है कि आखिर क्या ताकत थी इनकी? इनकी ताकत सबसे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा और बीते पांच वर्षों की केंद्र सरकार की छवि थी। साथ ही मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का अथक प्रचार अभियान, सवा साल में जनता के बीच सरकार को ले जाने की मुहिम भी कारगर रही। हिमाचल इसलिए
भी जीता है क्योंकि अभी तक के आंकड़ों के मुताबिक भाजपा को देश में सर्वाधिक मत प्रतिशत हिमाचल में मिला है। इस बीच, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ गालियों से शुरू हुए प्रचार का जवाब कई बार भले ही गालियों से दिया गया लेकिन यह साबित हो रहा है कि जनता ‘चौकीदार’ के साथ थी, उसे ‘चोर’ कहने वालों के साथ नहीं।
इसके साथ ही जो स्थिति कांग्रेस की केंद्रीय स्तर पर थी, उससे कहीं अधिक खराब हिमाचल प्रदेश में थी। चुनाव से कुछ वक्त पहले प्रदेशाध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू का हटाया जाना (हालांकि वह इसे अवधि पूरा होने से जोड़ते हैं), प्रत्याशी चयन में वीरभद्र्र सिंह को अलग रखना... भाजपा से दामन छुड़ा कर आए आश्रय शर्मा को रातोंरात प्रत्याशी बना देना... प्रत्याशी चयन में कांग्रेस का असमंजस की स्थिति में रहना...बड़े
नेताओं का चुनाव लड़ने से पीछे हटना....कई हलकों में कांग्रेस का इतना शालीन और सदाशयतापूर्ण हो जाना कि अपने बजाय भाजपा की मदद करना...ये सब कांग्रेस के खिलाफ गया।
केंद्र सरकार की योजनाओं की कलाकक्षीय आलोचना करना विपक्ष का धर्म है, वैचारिक रूप से असहमत
लोगों का कर्तव्य है लेकिन मत तो जनता के पास होते हैं, योजनाओं का नुकसान या लाभ उन्हें होता है, क्या मतों में ढले उसके अनुभव को भी नहीं माना जाना चाहिए? जिसे केंद्रीय या प्रदेश की योजनाओं का लाभ मिला, जिस जन के संदर्भ में जनधर्मिता की बात की जाती है, उसके मतों में ढले अनुभव या आदेश को इसलिए भी मानना चाहिए क्योंकि यह अंतिम उपभोक्ता का निर्णय है। अपने साथ पक्षधरता को जिस जन ने महसूस किया, जिसे लगा कि भाजपा और मोदी के साथ देश सुरक्षित है...उसकी क्यों नहीं मानेंगे? यह समय जनपक्षधर होने और दिखने का समय था, इसमें शब्द आडंबर के लिए स्थान नहीं होता। बहरहाल, जीत शालीन बनाती है, जिम्मेदार बनाती है जबकि पराजय में बकौल अटल, ‘आत्मनिरीक्षण होता है।
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