surgical strike 2: हमें पसंद नहीं जंग में भी मक्कारी
surgical strike 2 यह मरहम वस्तुत अकेले तिलक राज के परिवार के लिए नहीं है यह मेजर सोमनाथ शर्मा से शुरू होकर तिलक राज तक पहुंचता है।
शिमला, नवनीत शर्मा। हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में एक छोटा सा गांव है धेवा। बादलों और बारिश वाली एक दोपहर को तीन साल के बच्चे को पुचकारती एक मां का चेहरा उसके माथे की तरह सूना है...आवाज मद्धम लेकिन दृढ़ है...। उसके पास कहने को कुछ नहीं है। वह या तो शून्य में ताकती है या एक माह के बच्चे को देखती है। उससे नजर हटाती है तो तीन साल के बच्चे के सिर पर हाथ फेरती है..।
बस इतना कहती है...‘यह कार्रवाई बेहद जरूरी थी...हमने अपनों को खोया है, दुश्मन को सबक मिलना ही चाहिए था।’ गर्म कपड़ों में लिपटे दोनों बच्चे कतई अनभिज्ञ हैं कि उनके मकान पर तो छत है लेकिन जीवन की छत की महत्वपूर्ण कड़ी ...यानी उनके पिता अब नहीं हैं।
...यह हैं पुलवामा में 14 फरवरी को शहीद हुए तिलक राज की पत्नी सावित्री। पाकिस्तान में आतंकी अड्डों के खिलाफ भारतीय कार्रवाई के बाद यह संदेश उस जिले से है जिसे देश को पहला परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्मा का घर होने का गौरव हासिल है। यह मरहम वस्तुत: अकेले तिलक राज के परिवार
के लिए नहीं है, यह मेजर सोमनाथ शर्मा से शुरू होकर तिलक राज तक पहुंचता है। यही भारतीय सैन्य परंपरा है जिसका महत्वपूर्ण वाहक हिमाचल प्रदेश रहा है।
दरअसल, मरहम की विशेषता यह है कि उसे घाव के सूखने से पहले ही लगाया जाए। घाव कितना ठीक होगा, कितना नहीं, यह बाद की बात है लेकिन घाव के सूखने के बाद मरहम का कोई स्थान नहीं। देश जिस उबाल में था, देश जिस प्रकार बेचैन था, पाकिस्तान पर हुई एयर स्ट्राइक वस्तुत: एक मरहम बन कर
ही आई है। कुछ ने तो इसे होली से पहले देश में दिवाली भी बताया। जब सीने इंतकाम की आग में दहक रहे हों, यह बौछार एक देश के रूप में हमारे पुरुषार्थ और देश की वीरता के इतिहास को सींच गई है...और हिमाचल प्रदेश में इस बौछार का अर्थ कुछ विशेष भाव लिए होता है।
हिमाचली वीरता का इतिहास हमें वजीर राम सिंह पठानिया और जनरल जोरावर सिंह तक ले जाता है। हिमाचल के कई देवदार वतन की आंच को जिंदा रखने के लिए कुर्बान हुए हैं। युद्धकाल हो या शांतिकाल...यहां परमवीरों की भी कमी नहीं और अशोक चक्र विजेताओं की भी नहीं। मेजर धन सिंह थापा,
राइफलमैन संजय कुमार और शहीद कैप्टन विक्रम बतरा जैसे परमवीर इसी धरती से हैं। मेजर सुधीर वालिया को शांतिकाल का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार अशोक चक्र मिला था और तत्कालीन जनरल वीपी मलिक ने उनकी शहादत को बड़ा नुकसान बताया था। लेकिन यही हिमाचल प्रदेश होना है।
कुछ ऐसे
बहादुर भी हैं जिनके परिवारों को अब तक पता नहीं है कि वह पाकिस्तान की जेलों में किस हाल में हैं। कांगड़ा जिले के गुलेर के मेजर सुभाष गुलेरी अपनी शादी के दिन नौवीं जाट पलटन के बुलावे पर छंब जोड़ियां सेक्टर में मोर्चा संभालने चले गए थे। उनका आज तक कोई पता ठिकाना नहीं है। शहीद कैप्टन
सौरभ कालिया के साथ पाकिस्तानी सेना ने किस हद अमानवीयता की थी, क्या उसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता है?
हिमाचल प्रदेश के लोक जीवन में सेना एक जीवन शैली भी है और धर्म भी। इस बार उबाल इसलिए था, क्योंकि बेचेहरगी से जंग लड़ने की भी कोई मियाद होती होगी। यह सच है कि जंग तो खुद ही एक मसला है, जंग कब मसअलों का हल होगी....लेकिन अनपढ़, जाहिल और धर्मांध लोग जब हिंदुस्तान के टुकड़े करने का सपना देखते हैं तो उन्हें जवाब दिया जाना अनिवार्य हो जाता है। यह देश या प्रदेश कब तक
तिरंगा ओढ़ कर आने वाले देवदारों को कांधे पर उठाता रहेगा? यह जंग बेचेहरगी से है।
शायर द्विज के शब्दों में :
हमें चेहरों से कोई खौफ कब था
हमारी जंग थी बेचेहरगी से
पाकिस्तान की मदद से जिन लोगों ने हमारे देश के खिलाफ जंग शुरू कर रखी है, उनके चेहरे और पाकिस्तान के चेहरे जब एक हो जाते हैं तो जंग के लिए खौफ नहीं रहता। सच यह भी है कि युद्ध और
आत्मरक्षा में बहुत अंतर होता है।
पाकिस्तान ऐसा देश है जिसकी आधे से अधिक आबादी स्कूल नहीं जाती। उसने अंतरिक्ष में पैर तक नहीं रखा है। एक मूढ़ा बुनने के सिवाय उसका कोई योगदान नहीं है। पूरे अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में पाकिस्तान आतंकी की हैसियत रखता है तो महज इसलिए कि उसने अपनी प्राथमिकताएं ठीक तय नहीं की। वहां
न लोकतंत्र है, न शोध और न वैज्ञानिक नजरिया। एक विचित्र मानसिकता है कि सब देश मुस्लिम बन जाएं और पाश्चात्य से परहेज करें। सच यह है अंग्रेज जब माचिस लाए तो गालिब जैसे बुद्धिमान ने भी कहा था, ‘अजब कौम है, जेब में आग रखती है।’ इधर, हिमाचल प्रदेश में शहीदों के साथ सबकी सद्भावना होती है लेकिन शासन-प्रशासन भूल जाते हैं कि जिनके कारण हम सुरक्षित हैं, उनके नाम पर की गई घोषणाएं तो पूरी हो जाएं।
पठानकोट हमले में आतंकियों से निहत्थे भिड़ने वाले शहीद जगदीश चंद के गांव बासा (चंबा) तक अब भी सड़क नहीं है। अब भी टावर नहीं है...शुक्र है, श्मशान घाट और सामुदायिक भवन बन गए हैं।बहरहाल ऐसे देश से थोपे जा रहे अघोषित युद्ध का जवाब क्यों नहीं दिया जाना चाहिए था? सीमा की ओर देखें तो यह समय संवेदनशील है। ऐसे में युद्ध के उन्माद से अधिक जरूरी संयम है, स्थिति पर नजर रखना है। जहां तक जंग की बात है, इधर का पक्ष हस्ती मल हस्ती के शब्दों में है :
हमें पसंद नहीं जंग में भी मक्कारी
जिसे निशाने पे रखें, बता के रखते हैं