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मंडी शिवरात्रि महोत्सव की क्या है मान्यता, जानिए

international shivaratri festival mandi मंडी में मनाया जाने वाला शिवरात्रि का त्योहार आसपास के अनेक नगरों में जुड़ा भावनाओं से भरपूर लोकोत्सव है इसकी कई मान्‍यताएं हैं।

By Rajesh SharmaEdited By: Published: Tue, 05 Mar 2019 12:22 PM (IST)Updated: Tue, 05 Mar 2019 12:22 PM (IST)
मंडी शिवरात्रि महोत्सव की क्या है मान्यता, जानिए

मंडी, जेएनएन। प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी छोटी काशी (मंडी) में मनाया जाने वाला शिवरात्रि का त्योहार आसपास के अनेक नगरों में जुड़ा भावनाओं से भरपूर लोकोत्सव है। फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी से प्रारंभ होने वाले उत्सव में आसपास के 216 से अधिक देवी-देवता दूर-दूर से आकर एकाकार होते हैं। महाशिवरात्रि का प्रमुख आकर्षण मेलों के दौरान निकलने वाली शोभायात्रा होती है। जिसे राजमाधो की जलेब कहते हैं। शिवरात्रि के आखिरी दिन देव कमरूनाग मेले में आकर सभी देवताओं से मिलते हैं, वहीं पर उत्तरशाल के ही एक व प्रमुख देवता आदिब्रह्मा का गूर भी शहर की रक्षा व समृद्धि की कामना से कार बांधता है।

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मेले को लेकर अनेक मान्यताएं

इस मेले के प्रारंभ के विषय में अनेक मान्यताएं हैं। ऐसी ही एक मान्यता के अनुसार 1788 में मंडी रियासत की बागडोर राजा ईश्वरीय सेन के हाथ में थी। मंडी रियासत के तत्कालीन नरेश महाराजा ईश्वरीय सेन, कांगडा के महाराज संसार चंद की कैद में थे। शिवरात्रि के कुछ ही दिन पहले वे लंबी कैद से मुक्त होकर स्वदेश लौटे। इसी खुशी में ग्रामीण भी अपने देवताओं को राजा की हाजिरी भरने मंडी नगर की ओर चल पड़े। राजा व प्रजा ने मिलकर यह जश्न मेले के रूप में मनाया। महाशिवरात्रि का पर्व भी इन्हीं दिनों था व शिवरात्रि पर हर बार मेले की परंपरा शुरू हो गई। मुक्ति के इस अवसर पर आयोजित उत्सव ने मंडी शिवरात्रि महोत्सव का रूप ले लिया।

यह है दूसरी मान्यता

दूसरी मान्यता के अनुसार मंडी के पहले राजा बाणसेन शिव भक्त थे, जिन्होंने अपने समय में शिवोत्सव मनाया। बाद के राजाओं कल्याण सेन, हीरा सेन, धरित्री सेन, नरेंद्र सेन, हरजयसेन, दिलावर सेन आदि ने भी इस परंपरा को बनाए रखा। अजबर सेन, स्वतंत्र मंडी रियासत के वह पहले नरेश थे, जिन्होंने वर्तमान मंडी नगर की स्थापना भूतनाथ के विशालकाय मंदिर निमरण के साथ की व शिवोत्सव रचा। छत्र सेन, साहिब सेन, नारायण सेन, केशव सेन, हरि सेन, प्रभृति सेन राजाओं के शिव भक्ति की अलख को निरंतर जगाए रखा। राजा अजबरसेन के समय यह उत्सव एक या दो दिनों के लिए ही मनाया जाता था। किंतु राजा सूरज सेन (1637) के समय इस उत्सव को नया आयाम मिला।

ऐसा माना जाता है कि राजा सूरज सेन के 18पुत्र हुए। ये सभी राजा के जीवन काल में ही मृत्यु को प्राप्त हो गए। उत्तराधिकारी के रूप में राजा ने एक चांदी की प्रतिमा बनवाई जिसे माधोराय नाम दिया। राजा ने अपना राच्य माधोराय को दे दिया। इसके बाद शिवरात्रि में माधोराय ही शोभायात्रा का नेतृत्व करने लगे। राज्य के समस्त देव शिवारात्रि में आकर पहले माधोराय व फिर राजा को हाजिरी देने लगे। इसके बाद के शासकों में राजा श्याम सेन शक्ति के आराधक थे, जिन्होंने शिव शक्ति परंपरा को सुदृढ़ किया। शिवोत्सव का एक बडा पडाव शक्ति रूप श्यामकाली भगवती मां टारना के साथ जुड़ा हुआ है। इस दौरान सिद्ध पंचवक्त्र, सिद्धकाली, सिद्धभद्रा के शैव एवं शक्ति से जुडे मंदिरों का निमरण हुआ। शमशेर सेन, सूरमा सेन, ईश्वरीय सेन, जालिम सेन, तलवीरसेन, बजाई सेन के पश्चात भवानी सेन के द्वारा भी शिवोत्सव शिवरात्रि के पयरय के रूप में इस ढंग से मनाया जाने लगा कि पूरा नगर इसमें सम्मिलित हो गया।

प्रकृति के स्वागत का पर्व

फाल्गुन में बर्फ के पिघलने के बाद बसंत का प्रारंभ होता है। इस समय व्यास नदी में बर्फानी पहाडियों के निर्मल जल की धारा मंडी के घाटों में बहने लगती है, फाल्गुन माह का स्वागत पेड़ पौधों की फूल-पत्तियां करने लगती हैं व देऊलु अपने देवता के रथों को रंग-बिरंगा सजाने लगते हैं तो नगर के भूतनाथ मंदिर में शिव-पार्वती के शुभ विवाह की रात्रि को नगरवासी मेले के रूप में मनाना शुरू करते हैं।


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