आत्मसंयम ही मनुष्य की शक्ति
आत्मसंयम उस मित्र के समान है जो ओझल होने पर भी मनुष्य की शक्ति धारा में विद्यमान रहता है। सत्यत
आत्मसंयम उस मित्र के समान है जो ओझल होने पर भी मनुष्य की शक्ति धारा में विद्यमान रहता है। सत्यता में किसी प्रकार के संदेह की गुंजाइश नहीं होती है। सांसारिक व्यवहारों एवं संबंधों को परिष्कृत तथा सुसंस्कृत रूप में स्थिर रखने के लिए आत्मसंयम की अत्यंत आवश्यकता है। यदि विश्व की महान विभूतियों की जीवनी का अवलोकन किया जाए और उसका सूक्ष्म अध्ययन किया जाए तो ज्ञान होता है कि इन महान विभूतियों ने जीवन में जो सफलताएं उन्नति, श्रेय, महानता व आत्मकल्याण की प्राप्ति की है उनके कारणों में उनकी आत्मसंयम की प्रधानता है। आत्मसंयम के पथ पर अग्रसर होकर ही उन्होंने स्वयं को जीवन में महानतम रूप दिया है। कहा गया है कि नाव जल में रहे लेकिन जल नाव में नहीं रहना चाहिए। इसी तरह मनुष्य को भोग विलास से भरे संसार में नहीं रहना चाहिए। आत्मसंयम यानी मन को वश में करना, इंद्रियों को वश में करना तथा स्वयं पर नियंत्रण रखने वाला मनुष्य सुखमय जीवन व्यतीत कर सकता है परंतु अनियंत्रित गति से दौड़ रहे मन से जो जीवन व्यतीत करता है तो उसे विभिन्न प्रकार के कष्टों से गुजरना पड़ता है। मनुष्य को जीवन के हर क्षेत्र में धैर्य की आवश्यकता है। चाहे जीवन का कोई भी क्षेत्र क्यों न हो। जब हम भावनाओं को सही गलत को देखें बिना प्रवाहित होने देते हैं तो कहीं न कहीं हम स्वयं की अनमोल शक्ति व्यर्थ कर देते हैं। आत्मसंयम वह शस्त्र है जिसमें अथाह शक्ति का जन्म होता है। यही इच्छाशक्ति व्यक्ति को जीवन के कार्यों से जूझने में सहायता करती है। निश्चित रूप से आत्मसंयम का मार्ग अत्यंत दुष्कर है। मन पर वश नहीं होने और आत्मसंयम न होने पर मनुष्य हमेशा पतन के गर्त में ही गिरता है और वह छोटे से छोटे लाभ के लिए बड़े से बड़ा पाप करने में भी संकोच नहीं करता। आत्मसंयम की आवश्यकता प्रत्येक आयु के लिए है। चाहे वह गृहस्थी है, विद्यार्थी है, सामाजिक कार्यकर्ता है, चिकित्सक हो या फिर शिक्षक। यदि हम विद्यार्थी की बात करें तो जब तक आत्मसंयम के गुणों को अपनाकर व्यर्थ बातों से ध्यान हटाकर केवल अध्ययन में ही ध्यान केंद्रित करता है तो वह वैराग्य का आचरण करता है। ठीक इसी प्रकार एक गृहस्थी अपने सभी कार्य को निष्काम भाव से कर उत्तरदायित्वों का निवर्हन करता है तो वह समाज में सकारात्मक योगदान देता है। मन के संयमित होने तथा लक्ष्य के प्रति एकाग्रता होने से व्यक्ति की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है परंतु यह भी जानना जरूरी है कि आत्मसंयम बनने के लिए व्यक्ति को क्या प्रयास करने चाहिए। आत्मसंयम के पथ का नियमित रूप से आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। साथ ही स्वयं के नैतिक मूल्यों की वृद्धि के लिए प्रयासरत रहना चाहिए और अनैतिक गुणों का परित्याग कर सत्य का मार्ग अपनाना चाहिए। भगवान बुद्ध ने कहा है कि जिसने खुद को वश में कर लिया उसकी जीत को देवता भी हार में नहीं बदल सकते हैं।
-अनिता वर्मा, प्रधानाचार्य आधुनिक पब्लिक स्कूल सिद्धबाड़ी