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नूरपुर बस हादसा: फूलों के लिए बाग होते हैं ताबूत नहीे

फूलों को किसी चालक के अनुभव से कोई सरोकार नहीं होता, माता-पिता यही सोच कर आश्वस्त होते हैं कि उनके बच्चे सुरक्षित हाथों में हैं।

By BabitaEdited By: Published: Tue, 10 Apr 2018 09:17 AM (IST)Updated: Tue, 10 Apr 2018 03:34 PM (IST)
नूरपुर बस हादसा: फूलों के लिए बाग होते हैं ताबूत नहीे

शिमला, नवनीत शर्मा। यह हादसा महज हादसा नहीं, कई दहलीजों के चिरागों को बुझाने वाली आंधी थी...इससे सूने हुए आंगन की किलकारियां कहीं पाश्र्व में गूंज रही हैं... कहीं मां के फैले हुए हाथ हैं और सामने सिमटा हुआ...खामोश बच्चा है। कहीं गश खाती ममता है... कहीं पथराया हुआ पिता है। दरअसल फूल बागों के लिए होते हैं, ताबूत बन कर दौड़ती बसों के लिए नहीं...।

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फूलों को किसी चालक के अनुभव से कोई सरोकार नहीं होता, माता-पिता यही सोच कर आश्वस्त होते हैं कि उनके बच्चे सुरक्षित हाथों में हैं। लेकिन नूरपुर के चेली गांव में गहरी ढांक से उतरी बस के टुकड़े वास्तव में उस विश्वास की चिंदियां हैं जो अभिभावक स्कूल या किसी भी व्यवस्था पर करते हैं। सुबह बड़ा आदमी बनने केलिए स्कूल बस में बैठने से पहले हाथ हिलाते हुए नन्हें बच्चे शाम तीन बजे के बाद एक ही झटके में सारी चेतना खो बैठें, यह बड़ी त्रासदी है।

 

कोई कितनी भी सफाई दे...कोई कितने ही तर्क दे...इतने बच्चों की एक साथ मौत का सच अंधेरा बन कर अभागे घरों पर पसर गया है। क्या कसूर था इन बच्चों का? क्या दोष था इन अभिभावकों का? जैसा कि लोग कह रहे हैं, क्या यही कि बस का चालक एक मोटरसाइकिल वाले को बचाने के लिए सड़क से बाहर हो गया? या यह कि उस स्थान पर संकरी सड़क की हालत खस्ता थी और किनारा कच्चा था? या यह कि वे व्यवस्था को यह नहीं बता पाए कि कुछ माह पहले ही उस स्थान पर एक ट्रक भी गिरा था, इसलिए इस स्पॉट को ठीक कीजिए?

सोमवार को बच्चों की बस उसी ट्रक पर गिरी है। क्या विभाग और नीति नियंता किसी और वाहन केगिरने की प्रतीक्षा में हैं? क्या यह दोष लोक के लिए निर्माण करने वाले विभाग का नहीं है जिसे इस संवेदनशील स्थल को ठीक करने की न फुरसत मिली, न इच्छा हुई? मजिस्ट्रेटी जांच से जो निकलेगा, वह भी सामने आएगा, लेकिन फिलहाल दिल के टुकड़ों को समेटने की हिम्मत दिखाते उन अभिभावकों के बारे में सोचना चाहिए। सोचना चाहिए व्यवस्था को, इंजीनियरों को और जन प्रतिनिधियों  को भी, जिन्हें समस्या को देख कर भी न देखना आता है। ठेहड़ और गुरचाल जैसी पंचायतों से मांग भी उठी, लेकिन निष्ठुर व्यवस्था ने सुनी नहीं। क्या वहां मतदाता नहीं होते? नए विधायक को तो सौ दिन हुए हैं, पुराने विधायक पांच साल में इस सड़क का हाल नहीं ले सके? आखिर एक क्षतिग्रस्त सड़क को ठीक करने के लिए आम आदमी किसे कहे? इसके अलावा भी, तेज रफ्तार में चलते स्कूली वाहनों को कौन नकेलेगा? किस दिन यह समझ आएगा कि बच्चों में और सामान में फर्क होता है?

गहरी नींद सोये ये फूल अब कभी स्कूल नहीं जाएंगे। एक अबोध संसार अपराधी न होते हुए भी हमेशा के लिए चुप हो गया। व्यवस्था... सड़क... ये हुआ... वह हुआ....यह सब चलता रहेगा लेकिन स्कूल में इन बच्चों की मुस्कान जितनी जगह हमेशा खाली रहेगी...हो सकता है आने वाले समय में भर भी जाए लेकिन उन घरों का क्या जहां हर कोना खाली रहेगा...। बार- बार यह याद दिलाता हुआ...कि फूलों के लिए बाग होते हैं, ताबूत नहीं.....। 

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