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नगर निगम सुविधाओं के लिए हैं, लाल फीतों में बंधी औपचारिकताओं के लिए नहीं

जब हरियाणा छत्तीसगढ़ बिहार मध्य प्रदेश और राजस्थान स्थानीय स्तर पर चयनित प्रतिनिधियों से संतुष्ट न होने पर उन्हें वापस बुला सकते हैं तो हिमाचल प्रदेश को भी इस ओर बढ़ना चाहिए। बहरहाल जीत कर आए सभी पार्षद अपने क्षेत्र में वास्तविक विकास करेंगे ऐसी उम्मीद है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 08 Apr 2021 09:53 AM (IST)Updated: Thu, 08 Apr 2021 09:53 AM (IST)
नगर निगम सुविधाओं के लिए हैं, लाल फीतों में बंधी औपचारिकताओं के लिए नहीं
हिमाचल प्रदेश में नगर निगम के लिए बुधवार को संपन्न हुई मतदान की प्रक्रिया। फाइल

कांगड़ा, नवनीत शर्मा। कोरोना की दूसरी लहर और टीकाकरण के प्रति बढ़ते उत्साह के बीच हिमाचल प्रदेश के चार नगर निगमों के लिए मतदान बुधवार को संपन्न हो गया। प्रचार के दौरान जुड़े रहने वाले हाथ पुरानी मुद्रा में लौट रहे हैं। नारेबाजी और गरजते लाउड स्पीकरों को ढोने वाली गाड़ियां भी अब आराम कर रही हैं। जिन होंठों पर परिस्थितिजन्य मुस्कान इतने दिन बैठी रही, वे भी सामान्य होने का प्रयास कर रहे हैं। क्योंकि नगर निगम के चुनाव पार्टी चिह्न् पर हुए हैं, इसलिए परिणाम भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों से कुछ न कुछ जरूर कहेंगे। कौन जीता, कौन हारा और क्यों, इस पर चर्चा फिर कभी होगी।

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सत्ता के चौथे वर्ष में पार्टी चिह्न् पर चुनाव करवाना साहस का काम है। भाजपा ने यह चुनौती स्वीकार कर संदेश तो दिया है कि यह केवल भारतीय जनता पार्टी की लोकप्रियता की परीक्षा नहीं, यह इस बात का इम्तिहान भी है कि कांग्रेस कहां खड़ी है। चुनाव को किस हद तक गंभीरता के साथ लिया गया कि पुस्तकालय बंद थे, स्कूलों में छात्रों को नहीं बुलाया जा रहा था, लेकिन मुख्यमंत्री, मंत्रिमंडल के सदस्य वार्ड दर वार्ड सभाएं कर रहे थे। उधर, कांग्रेस के लिए भी यह प्रतिष्ठा का प्रश्न था। इसलिए नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री, कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष कुलदीप सिंह राठौर और कई वरिष्ठ नेता सक्रिय रहे। पार्टी चिह्न् पर पंचायत चुनाव नहीं होते, लेकिन वहां भी दलीय जुड़ाव साफ दिखाई देते हैं।

आखिर यूं ही तो दोनों दलों के बड़े नेताओं ने पंचायती राज चुनाव में अपने-अपने दल को अधिक सीटें मिलने का दावा नहीं किया होगा। अब चिह्न् स्पष्ट हैं तो नगर निगम में दावे नहीं करने पड़ेंगे कि अमुक जी हमारे हैं। चुनाव ही पार्टी लाइन पर था। विपक्ष का तंज यह था कि अगर मुख्यमंत्री ने इतना ही विकास करवाया है तो उन्हें वार्ड में सभाएं करने की आवश्यकता क्यों पड़ी? सत्ता पक्ष का तर्क यह है कि अगर हैदराबाद और जम्मू के स्थानीय निकाय चुनाव को भाजपा ने पेशेवराना ढंग से लड़ा तो यह उनके उत्साह और उसी सोच का परिचायक है कि कोई चुनाव छोटा नहीं होता। सच यह भी है कि अगर मुख्यमंत्री वार्ड तक उतरे हैं तो कांग्रेस के बड़े नेता भी जगह-जगह गए हैं। लेकिन इधर, राजनीति के साथ दो समस्याएं हो गई हैं। पहली यह कि राजनीति को अब साधन के बजाय साध्य के रूप में लिया जा रहा है। दूसरा, यह नहीं देखा जा रहा कि अगर कोई प्रतिनिधि चुना जाता है तो उसने क्या छाप छोड़ी। छाप छोड़ने से याद आता है कि नगर निगम चुनाव के बाद मंडी संसदीय हलके और कांगड़ा के फतेहपुर हलके में उपचुनाव भी कुछ रुझान देंगे।

मंडी सीट रामस्वरूप शर्मा के देहांत से खाली हुई है और फतेहपुर विधानसभा हलका कांग्रेस नेता सुजान सिंह पठानिया के निधन के कारण। मंडी नगर निगम चुनाव के दौरान पंडित सुखराम के पुत्र भाजपा विधायक अनिल शर्मा और मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के बीच चला वाकयुद्ध भी दिलचस्प रहा। अनिल शर्मा वही हैं जिन्होंने लोकसभा चुनाव में पुत्र के लिए टिकट मांगा और जब नहीं मिला तो कांग्रेस का टिकट ले लिया। आम कार्यकर्ता, किसी भी दल का हो, किसी भी विचारधारा का हो दरियां बिछाता रह जाता है और बड़े नेता वर्षो की वफादारी और प्रतिबद्धता को एक पल में छोड़ देते हैं, क्योंकि राजनीति साध्य है साधन नहीं।

प्रसंगवश जिस मंडी सीट के उपचुनाव को विधानसभा चुनाव से पहले की परीक्षा बताया जा रहा है, वहां से पहली लोकसभा सदस्य राजकुमारी अमृत कौर थीं। देश की पहली स्वास्थ्य मंत्री। एम्स की वेबसाइट पर दिए गए परिचय में साफ हो जाता है कि एम्स और राजकुमारी अमृत कौर का नाता क्या है। यह ठीक है कि शिमला सबसे पुराना नगर निगम है। उसके बाद 2015 में धर्मशाला बना, फिर इसी वर्ष सोलन, मंडी, पालमपुर बने। लेकिन जो पुराने हैं, क्या किसी के पास कुछ बताने को है कि क्या विरासत छोड़ी? बात मंडी सीट या चार नगर निगमों के पार्षदों की नहीं, विरासत छोड़ने के भाव की है। क्योंकि विधायक प्राथमिकताओं में पानी, बिजली, शिक्षा व स्वास्थ्य ही मूल मुद्दे बने हुए हैं?

चार नगर निगमों में जो पार्षद चुने गए हैं, अगर वे कोई काम न कर सकें, जनता की अपेक्षाओं पर खरा न उतर सकें, कोई अनुकरणीय कार्य न छोड़ सकें तो क्या उन्हें वापस बुलाने का अधिकार नहीं होना चाहिए? विधानसभा में तो ऐसा करना लगभग असंभव है, लेकिन क्या एक शुरुआत स्थानीय या नगर निकायों से नहीं होनी चाहिए? जब हरियाणा, छत्तीसगढ़, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान स्थानीय स्तर पर चयनित प्रतिनिधियों से संतुष्ट न होने पर उन्हें वापस बुला सकते हैं तो हिमाचल प्रदेश को भी इस ओर बढ़ना चाहिए। बहरहाल, जीत कर आए सभी पार्षद अपने क्षेत्र में वास्तविक विकास करेंगे, ऐसी उम्मीद है। उन्हें यह साबित करना होगा कि नगर निगम सुविधाओं के लिए हैं, लाल फीतों में बंधी औपचारिकताओं के लिए नहीं।

[राज्य संपादक, हिमाचल प्रदेश]


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