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त्‍वरित टिप्‍पणी : टिकट ही धर्म हो जाए तो संकट कैसा

leaders change party for Ticket कई राजनेताओं के पास धर्म भी होता है और उस पर संकट भी आता है। लेकिन टिकट ही धर्म हो जाए तो संकट कैसा।

By Rajesh SharmaEdited By: Published: Tue, 26 Mar 2019 11:42 AM (IST)Updated: Tue, 26 Mar 2019 11:42 AM (IST)
त्‍वरित टिप्‍पणी : टिकट ही धर्म हो जाए तो संकट कैसा
त्‍वरित टिप्‍पणी : टिकट ही धर्म हो जाए तो संकट कैसा

नवनीत शर्मा, धर्मशाला। कई राजनेताओं के पास धर्म भी होता है और उस पर संकट भी आता है। हिमाचल प्रदेश सरकार में ऊर्जा मंत्री अनिल शर्मा भी सोमवार को 'धर्मसंकट में दिखे। इसके बाद पंडित सुखराम का एक पुराना जुमला याद आया, 'ऐन वक्त पर। जब वह बवंडर में फंसे थे तो अक्सर कहते कि उनके खिलाफ किए गए षड्यंत्र का ऐन वक्त पर पर्दाफाश करेंगे। सोमवार को 'ऐन वक्त पर उन्होंने पोते के साथ कांग्रेस में घर वापसी कर ली।

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बहरहाल....और किसी के लिए हो न हो, राजनीतिक शास्त्र के विद्वानों और मनोविज्ञानियों के लिए यह शोध का विषय हो सकता है कि एक टिकट के लिए विचारधाराओं के साथ संबंध कैसे टूट सकते हैं, प्रतिबद्धताएं कैसे टूट सकती हैं। कल्पना ही की जा सकती है उस परिवार की, जहां दादा कांग्रेस में गए, पुत्र प्रदेश सरकार में मंत्री हैं और पोता भी कांग्रेस में ...टिकट के दावेदार भी। यही बहुरंगी राजनीतिक आइसक्रीम है। भाजपा के टिकट की दावेदारी तक सब ठीक था, टिकट न मिलने पर 'वैचारिक मतभेद इतने गंभीर हो गए कि गांधी परिवार के साथ पुराने निजी संबंध याद हो आए। टिकटों की घोषणा भी हो ही जाती मगर टल गई। हिमाचल प्रदेश की चुनावी हंडिया में सुविधा, महत्वाकांक्षा और अवसरवाद की खिचड़ी कई दिन से पक रही थी। कुछ लपटें मंडी से उठ रही थी तो कुछ हमीरपुर से। हमीरपुर में सुरेश चंदेल वाली खिचड़ी में अभी सुखविंदर सिंह सुक्खू कंकड़ डाल रहे हैं, इसलिए ढक्कन उतरा नहीं है। घोषणा नहीं हुई कि खिचड़ी तैयार है।

एक बार फिर साफ हो गया कि विचारधारा, प्रदेश या देशसेवा नहीं, कुछ और महत्वपूर्ण है जिसे टिकट कहा जा सकता है। दादा का सपना तमाम प्रतिबद्धताओं पर भारी पड़ गया। इस देश में कई पार्टियां ऐसी हैं जो व्यवस्था या अरेंजमेंट हैं। कांग्रेस कोई अरेंजमेंट नहीं है। कई बड़े नेताओं के खून से सींची हुई पार्टी है। उसे छोड़ते वक्त विचारधारा कहां थी? जिस भाजपा की नींव आरएसएस के माध्यम से 1925 में पड़ी, क्या वहां विचारधारा नहीं है? कैसे और किसके लिए एक दिन में संबंध विच्छेद कर लेते हैं राजनीतिक लोग? 

पंडित सुखराम कांग्रेस के थे। संचार क्रांति के मसीहा भी कहलाए। एक अप्रिय प्रकरण के बाद कांग्रेस से दूरियां बढ़ीं और हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई। प्रदेश में पहली ऐसी गैर कांग्रेसी सरकार, जो पांच साल तक चली। वीरभद्र सिंह के साथ छत्तीस का आंकड़ा था, कांग्रेस में कीमत नहीं थी, प्रतिशोध लेना था। पुत्र अनिल शर्मा राज्यसभा पहुंच गए। उसके बाद जो हुआ सो हुआ, बेटा कांग्रेस सरकार में मंत्री भी रहा। ऐन वक्त पर फिर विचारधारा डोली और बेटे को भाजपा में भेज दिया। विधानसभा टिकट मिला और मंत्री भी बन गए। अब जब पुत्र मंत्री हैं तो पोते को सांसद बनाने का सपना भी देखा।

धर्मसंकट में फंसे अनिल शर्मा कह रहे हैं कि अब भाजपा आलाकमान ही उनका फैसला करेगा। उधर, भाजपा कह रही है कि अनिल शर्मा ही अपने धर्मसंकट का हल करेंगे। सच यह है कि जब टिकट ही धर्म हो तो संकट कैसा। यह कोई सैद्धांतिक टकराहट नहीं थी कि सिंधिया परिवार की तरह मां-बेटे का उदाहरण बन जाए। यह सुविधा का सौदा है। आज पंडित सुखराम कह रहे हैं कि भाजपा ने उनकी और वीरभद्र सिंह की दूरियों का लाभ उठाया। सवाल तो बनता है कि लाभ क्या उन्होंने स्वयं नहीं उठाया? इधर, मुख्यमंत्री कह चुके कि अगर अनिल नैतिकता के आधार पर त्यागपत्र देते हैं तो वह स्वीकार कर लेंगे। नैतिकता के आधार पर...!


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