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खबर के पार : कब तक धीरज धरे धरोहर

Himachal special on Herritage day कोई इमारत या ऐसी ही बड़ी कृति रात भर में धरोहर नहीं हो जाती।

By Rajesh SharmaEdited By: Published: Thu, 18 Apr 2019 12:36 PM (IST)Updated: Thu, 18 Apr 2019 04:38 PM (IST)
खबर के पार : कब तक धीरज धरे धरोहर

धर्मशाला, जेएनएन। कोई इमारत या ऐसी ही बड़ी कृति रात भर में धरोहर नहीं हो जाती। धरोहर या विरासत बनने के लिए इमारत पहले एक लंबा और मजबूत अर्सा अपनी नींव में भरती है। किसी कालखंड की कला को जज्ब करती है, वर्षों और सदियों की धूप को सहती है, हर रंग की बारिश में नहाती है, कितने ही बादलों को झेलती है...तब जाकर उसे धरोहर होना नसीब होता है। यह भी जरूरी नहीं कि हर मौसम की मार सहने के बाद भी उसे धरोहर का दर्जा मिल ही जाएगा। धरोहर दिवस की धूम पर इस बार चुनावी गहमागहमी स्वाभाविक कारणों से भारी है।

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लेकिन किसी दल के पास धरोहर का संरक्षण भी अलग से चुनावी मुद्दा हो, यह बहुत कम दिखता है। विश्व धरोहर सूची के अनुसार सबसे अधिक धरोहर स्थल इटली और चीन के पास हैं जिनकी संख्या क्रमश: 54 और 53 है। भारत 37 ऐसे स्थलों के साथ छठे क्रम पर है। भारत के 37 स्थलों में दो धरोहरों का योगदान हिमाचल प्रदेश का है। हिमाचल प्रदेश में ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क और कालका-शिमला रेल मार्ग के अलावा अभी तक कोई नाम नहीं है। ऐसा नहीं हैं कि ऐसी कृतियां या स्थल नहीं हैं। समस्या यह है कि उनके प्रति न जागरूकता है और न इस बात का अर्थ ही पता है कि विश्व धरोहर सूची में आने के लाभ क्या हैं। कांगड़ा जैसे कितने किले अब भी मुस्तैद हैं। वे अब भी हैं लेकिन उन पर किसी की नजर नहीं है। शिमला में कितनी धरोहर इमारतें थी, कुछ खाक हो गईं और कुछ को बचाया नहीं जा सका। शिमला के बैंटनी कैसल को बचाकर, उसे नया रूप देकर वहां टाउन हाल बना कर हिमाचल प्रदेश सरकार ने एक अच्छा काम किया है। लेकिन कई स्थल ऐसे हैं जिनमें धरोहर होने के समूचे गुण हैं...किंतु उपेक्षित हैं।

शिमला की वह इमारत धरोहर क्यों न हो जहां 1971 की जंग के बाद जुल्फिकार अली भुट्टो और इंदिरा गांधी के बीच समझौता हुआ था। धरोहर के प्रति आग्रह के कारण केवल भावनात्मक नहीं होते, उनके पीछे एक इतिहास और कालखंड खड़ा होता है। रबिंद्रनाथ टैगोर शिमला आए थे तो वुडफील्ड इमारत में ठहरे थे। अब वहां कुछ नहीं है। एमएस मुखर्जी ने मुख्य सचिव रहते हुए एक शिला पर टैगोर के आने, ठहरने की तिथियां लिखी थी लेकिन वे शब्द मिटने लगे हैं। हिमाचल प्रदेश देवभूमि अवश्य है लेकिन एक भी ऐसी प्राचीन धार्मिक या सांस्कृतिक इमारत नहीं है, जो वैश्विक धरोहर समिति की सूची में हो। होना तो यह चाहिए था कि महाराष्ट्र की अजंता-एलोरा गुफाएं, दिल्ली के लालकिला, हुमायूं का मकबरा, कुतुबमीनार, मध्य प्रदेश के खजुराहो मंदिर, आगरा के किले और ताजमहल के साथ हिमाचल की प्रतिभागिता कालका-शिमला रेलमार्ग और ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क से आगे बढ़े। राजधानी शिमला में ही वायसरीगल लॉज यानी भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, गेयटी थियेटर और रेलवे बोर्ड बिल्डिंग भी सूची में आने की हकदार हैं।

मंडी के कमलाह किले और कांगड़ा के कई किलों में से रेहलू के किले तक कोई नजर नहीं जाती। एक ही पत्थर को काट कर बनाए गए कांगड़ा के मसरूर मंदिर का नसीब ऐसा रहा कि उस गांव को कांग्रेस की राज्यसभा सदस्य विप्लव ठाकुर ने गोद लिया था लेकिन मंदिर तो मंदिर, पूरा गांव ही नींद में है। इसी प्रकार मनाली का हिडिंबा मंदिर, मंडी के मंदिर, लाहुल-स्पीति जिले में हजार साल से अधिक पुरानी ताबो मोनास्ट्री पर क्यों विचार न हो? गेयटी थियेटर जिसका रंगमंच से जुड़ा इतिहास है, उसे क्यों अवसर न मिले? कई कारण हैं कि अशअर नजमी के शब्द कौंधते हैं :

सौंपोगे अपने बाद विरासत में क्या मुझे

बच्चे का यह सवाल है गूंगे समाज से

इसी प्रकार कोई भी व्यक्ति रेहलू के किले की दशा देख कर द्रवित हुए बिना रह ही नहीं सकता। एक परित्यक्त बुजुर्ग की तरह अब अपनी व्यथा सुना नहीं सकता केवल दिखा सकता है यह किला। झाडिय़ों के कब्जे में आया यह किला कभी चंबा रियासत की शान था। यहीं से कुछ नीचे नेरटी में चंबा के राजा राज सिंह की जंग कांगड़ा महाराजा संसार चंद के साथ हुई थी जहां राज सिंह हार गए थे। लेकिन यह क्षेत्र, यहां के प्रतिनिधि, चाहे मेजर विजय सिंह मनकोटिया रहे हों या सरवीण चौधरी, किसी की प्राथमिकता में यह नहीं रहा।

बीते वर्ष देहरा के विधायक होशियार सिंह ने अवश्य कांगड़ा कलम या पहाड़ी चित्रकला का मुद्दा उठाया लेकिन जहां राजनेताओं की प्राथमिकता ही कुछ और हो... जहां पुराने तालाब की संभाल... बावड़ी को संजीवनी देने की बातें...ऊंची इमारतों की नींव में दबी कभी कलकल करती पानी की कूहलें... हैंडपंप की घोषणा से बहुत पीछे रह जाएं, वहां क्या उम्मीद की जा सकती है। कांगड़ा कलम के लिए जो कार्य मौजूदा मुख्य सचिव बीके अग्रवाल ने कांगड़ा के जिलाधीश और मंडलायुक्त रहते हुए किया, वह कोई और नहीं कर पाया। हालांकि मौजूदा उपायुक्त संदीप कुमार इस धरोहर को बचाने के लिए संजीदा हैं। एक समाज के रूप में भी हमारे सरोकारों में कोई कमजोरी तो है कि धर्मशाला के सार्वजनिक स्थलों पर तिब्बती कला तो दिखती है, पहाड़ी चित्रकला नहीं। कुछ प्रयास नाम के लिए नहीं होते, कुछ सहेजने के लिए होते हैं। जैसे पठानकोट-मंडी राजमार्ग के किनारे लगे आम और बरगद के पेड़...ये हमारे ही पुरखों में से किसी ने लगाए थे। धीरज धरना धरोहर की प्रवृत्ति है...छांव ही देती है... इन शब्दों में :

जब भी जाता हूं मुस्कराते हैं

पेड़ पुरखों के हैं लगाए हुए


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