खबर के पार: हिमाचल सरकार के दो साल के जश्न के बीच तीन सालों की उम्मीदों का अंबार
Khabar ke paar वर्षगांठ मनाने के दो पक्ष होते हैं। सकारात्मक सोच के मुताबिक वर्षगांठ का अर्थ है समय के एक और मील पत्थर को छूना।
धर्मशाला, नवनीत शर्मा। वर्षगांठ मनाने के दो पक्ष होते हैं। सकारात्मक सोच के मुताबिक वर्षगांठ का अर्थ है, समय के एक और मील पत्थर को छूना। नकारात्मक सोच यह कहती है कि एक साल कम हो गया। सोच सकारात्मक ही रखनी चाहिए। 27 दिसंबर को केंद्रीय गृहमंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह शिमला के रिज मैदान से एक जनसभा को भी संबोधित करेंगे। वर्षगांठ वस्तुत: क्या खोया, क्या पाया प्रकार के मंथन का अवसर भी देती है। हिमाचल प्रदेश में जयराम ठाकुर के नेतृत्व में बनी भारतीय जनता पार्टी की सरकार दो साल पूरे कर रही है। बहुमत पाकर आई सरकार है, इसलिए बाकी साल भी पूरे होंगे, इस पर संदेह नहीं हो सकता।
वर्षगांठ की बात आती है तो रिपोर्ट कार्ड भी प्रासंगिक हो उठता है। रिपोर्ट कार्ड के लिए भी दो प्रकार के पक्ष आते हैं। एक तर्क यह उठता है कि जब चुना पांच साल के लिए है तो दो साल बाद ही हिसाब मांगने का औचित्य क्या है। दूसरा तर्क यह उठता है कि पांच साल बाद तो सब दिख ही जाएगा, दो साल बाद अगर जश्न मनाया जा रहा है तो जाहिर है कुछ उपलब्धियां जानने का हक भी लोगों को है।
इन दो वर्षों में जो प्रमुख तौर पर दिखा है, वह यह है कि केंद्रीय योजना उज्ज्वला की हमशक्ल राज्यस्तरीय योजना 'गृहिणी' ने हर घर में असर दिखाया है। आयुष्मान योजना से मिलती जुलती 'हिमकेयर का दायरा भी बढ़ाया गया है। 'सहारा' का सहारा भी कम नहीं है। 1100 नंबर पर प्रदेश का कोई भी व्यक्ति अपनी समस्या बता सकती है। सुना यह है कि उस पर कार्रवाई भी होती है। अगर नहीं होती हो अफसरों को मुस्तैद रहने की जरूरत है।
सचिवालय में आला अफसरों का अध्यात्म शिविर आवश्यक हो सकता है लेकिन फरियादी की समस्या निपटाने में विशेष अध्यात्म है, ऐसा महसूस किया जाता है। अगली उपलब्धि तमाम आलोचनाओं के बावजूद 'जनमंच' को गिना जा सकता है जहां आम जनता के साथ विपक्षी दलों के लोग भी समस्या बताते हैं और उनकी अर्जी को भी पंख लगते हैं। एक और उपलब्धि है ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट का आयोजन। निवेश को लेकर यह बताया जा रहा है कि लक्ष्य से ऊपर जा पहुंचे हैं। वह जमीन पर कितना उतरता है, यह देखना बाकी है। बाकी मुख्यमंत्री का सबको सहज उपलब्ध होना तो उपलब्धि है ही।
इनके साथ ही कुछ उम्मीदें हैं जो कभी मरती नहीं। एक उम्मीद यह है कि पर्यटन, खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति, राजस्व और लोक निर्माण जैसे महत्वपूर्ण विभागों को भी मंत्री मिलेंगे। इनमें से कुछ तो इतने महत्वपूर्ण हैं कि इन्वेस्टर्स मीट के संदर्भ ही उनके साथ जुड़ते हैं। लेकिन उसके लिए आवश्यक है कि मंत्रिमंडल विस्तार हो और रिक्तियां भरें। उससे पहले मंत्रियों का रिकॉर्ड भी देखा जाए, फेरबदल भी लंबे समय से लंबित है। यह जनता की अपेक्षा और मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार भी है।
अगर निगम की बसों में इलेक्ट्रॉनिक रूट बोर्ड अब भी तमिल और कन्नड़ में वहीं के शहरों के आते हैं...तो सोचना पड़ता है। निजी बस वालों के लिए अगर बीते दो साल से जीएस बाली ही परिवहन मंत्री हैं और उनका नंबर ही परिवहन मंत्री का आधिकारिक नंबर है तो सोचना चाहिए कि ऐसी बसों की जांच किन अफसरों के अमले ने की? शहरी विकास के कितने पड़ाव गांवों से ही नहीं निकल पाए, इस पर भी मंथन तो होना चाहिए।
नागरिक अस्पताल अगर रेफरल यूनिट बन गए हैं और मरीज अगर आकर यह कहे कि अस्पताल की दवा का असर नहीं होता तो सोचना चाहिए। धर्मशाला शीतकालीन प्रवास का एक बड़ा परंपरावाहक था। बड़ी अपेक्षा है कि मंत्री वहां भी बैठेंगे। कम से कम कांगड़ा के तो अवश्य बैठेंगे। मंत्रियों को इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए कि मंडी से जब-जब जाति आधारित टिप्पणियां हुई हैं, अच्छा संदेश नहीं गया है। कभी 'धर्मसंकट' में फंसे अनिल शर्मा को जब जनता जवाब दे चुकी है तो यह ख्याल रखना चाहिए कि मंडी में हर जाति लोग हैं और उन्हें केवल अवसरवाद ही नहीं, जातिवाद और अहं के मिश्रण को पहचानना भी आता है।
वहीं, 2017 के विधानसभा चुनाव से कुछ अर्सा पहले तत्कालीन केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने प्रदेश के लिए 69 राष्ट्रीय राजमार्गों की घोषणा की थी। कांग्रेस के कार्यकाल में तो इनकी डीपीआर नहीं बन पाई थी, अब बनेंगी, यह बड़ी उम्मीद है। दशकों से अटके पौंग बांध विस्थापितों के मुद्दे सुलझेंगे, प्रदेश के काबिल और विशेषज्ञ अफसर कोई ऐसा तरीका बताएंगे कि कर्ज के फंदे से पहाड़ को मुक्ति कैसे मिले, बड़ी आशा है।
हिमाचल रेलवे की परियोजनाओं में अपना हिस्सा दे पाने में सक्षम होगा, ऐसी आस भी रहनी चाहिए। यह भी आशा है कि शिक्षकों के अवकाश पर शिक्षा निदेशालय हमेशा असमंजस में नहीं रहेगा। अनियोजित विकास नहीं होगा, हरियाली को बचाने और आर्थिक संसाधन बढ़ाने के बीच संतुलन अवश्य बनेगा। कुछ मंत्रिगणों के परिजनों की अतिसक्रियता कम हो तो भला सरकार का ही होगा। इस मामले में मुख्यमंत्री के परिजन आदर्श स्थिति में हैं। यही रास्ता और भी अपना सकते हैं।