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भारतीय संस्कृति के कण-कण में नैतिकता व संस्काररूपी बीज

श्लोकार्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभि। परोपकार पुण्याय पापाय परपीड़नम्।। करोड़ों ग्रंथों मे

By JagranEdited By: Published: Wed, 15 Sep 2021 08:28 PM (IST)Updated: Wed, 15 Sep 2021 08:28 PM (IST)
भारतीय संस्कृति के कण-कण में  नैतिकता व संस्काररूपी बीज
भारतीय संस्कृति के कण-कण में नैतिकता व संस्काररूपी बीज

श्लोकार्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभि:।

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परोपकार: पुण्याय पापाय परपीड़नम्।।

करोड़ों ग्रंथों में यह बात कही गई है कि दूसरों का भला करना ही सबसे बड़ा पुण्य है और दूसरों को दुख देना सबसे बड़ा पाप। ये पंक्तियां हमारी संस्कृति और संस्कारों को सार्थक सिद्ध करती हैं, क्योंकि हमारी संस्कृति ही हमें संस्कार सिखाती है। हम पाप व पुण्य की बात संस्कृति की बदौलत ही समझ पाए हैं। हमारी संस्कृति इतनी उन्नत और विशाल है कि उसकी शाखाएं विदेशों तक पहुंच गई हैं। आज विदेशों में भी हमारी संस्कृति को सराहा जा रहा है। विदेशी विद्यालयों में हमारी संस्कृति को तवज्जो दी जा रही है। वहां के विद्यार्थी ऊं भूर्भव: स्व का नित्य प्रति जाप करते देखे जा सकते हैं।

भारतीय संस्कृति के कण-कण में नैतिकता, सभ्यता व संस्कार रूपी बीज भरे हुए हैं। ऐसी संस्कृति सद्गुण ही पैदा कर सकती है। संस्कृति शब्द संस्कार से बना है जिसका अर्थ है सुधरा व ठीक किया हुआ। मानव जीवन में संस्कृति से जुड़े संस्कारों की बहुत अहमियत है, क्योंकि संस्कार व संस्कृति से ज्ञान बढ़ता है, विवेक जागृत होता है। खासकर सही-गलत की पहचान भी संस्कारों से ही होती है।

संस्कृति से तात्पर्य प्राचीन काल से चले आ रहे संस्कारों से है। आज पूरा विश्व भारत की कला, शक्ति और कला साधना का लोहा मानता है, क्योंकि भारत एक विविध संस्कृति वाला देश है। भारत जैसे विशाल देश के पास एक ऐसी सांस्कृतिक विरासत है जिसकी तलाश पूरी दुनिया को है। वर्तमान दौर में संस्कृति संस्कारों से विलुप्त होती जा रही है। संस्कार स्वयं में अमूर्त हैं। यह व्यक्ति के आचरण से झलकते हैं।

हम पुरातन संस्कृति, सभ्यता के आदर्श और परंपराओं की जड़ों से निरंतर कटते जा रहे हैं। पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव ने हमारे संस्कारों का नाश कर दिया है। आधुनिकता के इस दौर में आज व्यक्ति स्वयं के लिए उचित व अनुचित की पहचान नहीं कर पा रहा है क्योंकि उसके जीवन में संस्कारों का अभाव है। यह संस्कार मात्र निश्चित तौर से अपने घर से ही शुरू किए जा सकते हैं। जन्मना जायते, शूद्र: संस्कारै द्विज उत्यते।।

अर्थात मनुष्य जन्म से द्विज नहीं होता। द्विज तो वह संस्कार द्वारा ही बनता है, लेकिन आजकल का युवा इस पंक्ति के अर्थ को नहीं समझना चाहता। वह संस्कृति और संस्कार दोनों के अभाव में अपने शिष्टाचार को भूलता चला जा रहा है। इस सब के लिए हम अपनी युवा पीढ़ी पर पूरा दोष नहीं डाल सकते। उन पर दोष डाल कर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकते। क्योंकि सोचने की बात यह है कि क्या हम युवा पीढ़ी के लिए अपनी कर्तव्यनिष्ठा निभा रहे हैं। आज युवा पीढ़ी में अगर संस्कारों की कमी है तो उसके लिए हम ही जिम्मेदार हैं, क्योंकि हम उनमें संस्कार, नैतिकता और शिष्टाचार नहीं भर पा रहे हैं।

आज कहानियों की जगह कंप्यूटर, टेलीविजन, वीडियो गेम, मोबाइल फोन, फिल्मी गानों ने ले ली है। आज का युवा भगत सिंह, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी आदि के जीवन की गाथा नहीं सुनता बल्कि पब्जी जैसी गेम खेलकर अपना कीमती समय नष्ट कर रहा है। अगर हम स्वयं परिवार में रहकर अपने वृद्धजनों व स्वजन का मान-सम्मान करेंगे, उनके साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार करेंगे तभी हम युवा पीढ़ी में वह सब संस्कार दे सकते हैं। युवा पीढ़ी में घटते संस्कार हमारी ही देन हैं। आज अध्यापक, अभिभावक व समाज सभी को साथ मिलकर युवाओं में अच्छे संस्कार का निर्माण करना होगा जिससे संस्कृति से संस्कार उत्पन्न किए जा सकें। तभी समाज का भविष्य उज्ज्वल होगा व देश का भविष्य उज्ज्वल होगा।

हमारे संस्कार, सभ्यता, संस्कृति व धर्म सत्य से उत्पन्न होते हैं तथा दया व दान से बढ़ते हैं। क्षमा से स्थिर होते हैं और क्रोध एवं लोभ से नष्ट हो जाते हैं। इसलिए जीवन में अच्छे संस्कारों का होना बहुत ही महत्वपूर्ण है।

इसलिए पल-पल ईश्वर से यही प्रार्थना है कि हे देव असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय। डा. सुमन शर्मा, प्राचार्य, शरण कालेज आफ एजुकेशन फार वूमेन घुरकड़ी (कांगड़ा)।


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