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Hindi Diwas 2019: परंपरा नहीं, हिंदी को व्यवहार में लाने की जरूरत

Hindi Diwas 2019 आज के दौर में परंपरा नहीं हिंदी को व्यवहार में लाने की जरूरत है।

By Rajesh SharmaEdited By: Published: Sat, 14 Sep 2019 04:38 PM (IST)Updated: Sat, 14 Sep 2019 04:38 PM (IST)
Hindi Diwas 2019: परंपरा नहीं, हिंदी को व्यवहार में लाने की जरूरत
Hindi Diwas 2019: परंपरा नहीं, हिंदी को व्यवहार में लाने की जरूरत

नीरज आजाद, धर्मशाला। हर साल बरसात में लाखों की संख्या में पौधारोपण...इसके बाद हिंदी दिवस मनाने की परंपरा...गोष्ठियां, सम्मेलन और कई तरह के आयोजन...। आजादी के बाद कितना वन क्षेत्र बढ़ा और कितना हिंदी का विकास हुआ... चिंतन जरूरी है। हिंदी पर लंबे चौड़े भाषण, शोध पत्र, आलेख, निबंध। स्कूलों में कॉलेजों में भी प्रतियोगिताएं। लेकिन व्यवहार में ये कितने उतर पाते हैं यह उन शिक्षण संस्थानों को देखने से पता चल जाता है, जहां पर हिंदी बोलने पर सजा मिलती है या वहां के बच्चों को यह पता नहीं होता कि इकतीस पैैंसठ या पचहत्तर...क्या होते हैं।

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यह भी दौर था कि स्कूल में जब अंतिम पीरियड होता था तो बच्चे जोर-जोर से पहाड़े बोलते थे। आज बहुत कम बच्चे हैं जिन्हें एक दूनी, दूनी, दो दूनी चार... बोलना आता हो। अंग्र्रेजी में टेबल भी याद नहीं और गुणा करने पर ही जवाब मुश्किल से दे पाते हैं। यह भी निराश करने वाला है कि हिंदी से नाम कमाने वाले भी बहुत से लोग राजभाषा को आचरण में नहीं उतार पाए हैं।

हिंदी के प्रचार-प्रसार की बात करने वालों के घर में हिंदी दूसरी भाषा है। बच्चे उन अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े-बढ़े हैं, जहां हिंदी बोलने की मनाही है। यह भी देखकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि ड्राइंग रूम की आलीशान मेज में अंग्र्रेजी का अखबार तो जरूर दिखेगा लेकिन हिंदी का अखबार नीचे दबा होगा या होगा ही नहीं। आखिर हिंदी के प्रति ऐसी मानसिकता क्यों है? क्यों ङ्क्षहदी बोलने वाले को कम और अंग्र्रेजी बोलने वालों को अहमियत दी जाती है? क्या हिंदी बोलने वाले सभ्य नहीं होते?

हिंदी बोलने में शर्म क्यों महसूस हो, जब आधुनिक युग के अहम संचार माध्यम सोशल मीडिया में भी ङ्क्षहदी को स्थान मिला है। विदेशियों ने अपनी भाषा यानी हिंदी में वार्तालाप का विकल्प दिया है लेकिन राजभाषा के पहरेदार हिंदी से परहेज करते हैं। ऐसा भी हमारे देश में होता रहा कि किसान सम्मेलन को अंग्रेजी में संबोधित किया जाता रहा है। दुख तब भी होता है जब गांव के किसान को जानकारी देने वाली सामग्र्री अंग्र्रेजी में बांटी जाती है। यह किसी भाषा का विरोध नहीं बल्कि एक दर्द है। जब देश का अधिकांश तबका जो ङ्क्षहदी बोलता, समझता है उसे अंग्र्रेजी में संबोधित किया जाए।

यह सुखद पहलू है कि कई देशों में हिंदी भाषा को मान्यता मिली है। कितनी सुखद अनुभूति होती है जब कोई विदेशी आकर नमस्ते कहता है। संयुक्त राष्ट्र की आमसभा को जब अटल बिहारी वाजपेयी, सुषमा स्वराज और स्वामी विवेकानंद ने हिंदी में संबोधित किया था तो हर भारतीय गौरवान्वित हुआ था। लेकिन बात खुद पर ओ तो अंग्रेजी को प्राथमिकता दी जाती है। अंग्रेजी का जो स्थान है, वह बना रहेगा लेकिन हिंदी पर विदेशी भाषा को प्राथमिकता देना भी उचित नहीं है। जहां अंग्रेजी की जरूरत है, वहां उसका प्रयोग ही होगा। लेकिन अगर हम अपनी बात हिंदी में समझ-समझा सकते हैैं तो पीछे क्यों रहें। जरूरत से हम मन से हिंदी को अपनाएं और अंग्रेजी बोल न पाने पर हीनभावना से ग्रसित न हों।

मात्र एक दिन हिंदी दिवस मनाने, बड़े आयोजन करवाने से इसका उत्थान नहीं हो सकता। जब तक लोग अपने व्यवहार में हिंदी को नहीं लाएंगे तब तक इसका विकास नहीं हो सकता। हमें अपने व्यवहार में हिंदी को उतारना होगा, तभी हिंदी का विकास संभव है। हमें हिंदी को मजबूरी में नहीं बल्कि अपने व्यवहार में जरूरी बनाना होगा।


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