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उपेक्षा के ताप को सहते रहे प्रताप

पंजाब से अलग होने पर एक नया हिमाचल बन रहा था। उस दौरान गांव-गांव घूम कर प्रताप चंद शर्मा ने उस चेतना को जागृत किया।

By Munish DixitEdited By: Published: Wed, 28 Nov 2018 01:36 PM (IST)Updated: Wed, 28 Nov 2018 01:37 PM (IST)
उपेक्षा के ताप को सहते रहे प्रताप

नवनीत शर्मा । प्रताप चंद शर्मा के देहावसान से हिमाचली लोकसंगीत का एक चमकता तारा अस्त हो गया है। ऐसा तारा जिसकी मीठी-मीठी लौ भरोसा दिलाती थी कि उम्रदराज होकर ही सही, एक ताकत अभी बैठी हुई है, बनी हुई है। एक इकतारा या धंतारू भी खामोश हुआ है। साज अकेला रह गया है, आवाज ने पर्दा कर लिया है। धंतारू वाले प्रताप चंद शर्मा की अंगुलियां अब धंतारू की तार पर नहीं फिरेंगी और वातावरण को पवित्रता से भरने वाली 'धुंङङÓ की ध्वनि में जज्ब होती उनकी अपनी आवाज अब नहीं गूंजेगी।

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हिमाचल प्रदेश ने अपने पितातुल्य बड़े भाई को खोया है। 23 जनवरी, 1927 को जन्मे थे प्रताप चंद। हिमाचल 1948 में अस्तित्व में आया। फिर पूर्ण राज्य बनने से पहले से ही प्रताप चंद उस चेतना के वाहक बने जो किसी भी प्रदेश को उसकी पहचान दिलाने में मददगार होती है। पंजाब से अलग होने पर एक नया हिमाचल बन रहा था। उस दौरान गांव-गांव घूम कर प्रताप चंद शर्मा ने उस चेतना को जागृत किया। ठंडी-ठंडी हवा झुलदी कि झुलदे चीलां दे डालूू, जीणा कांगड़े दा...उनका ट्रेडमार्क बन गया। दरअसल वातावरण को महसूस कर शब्द को चुनना और फिर उसे अपनी आवाज के कपड़े पहनाना और संगीत से उसका अलंकार करना आसान काम नहीं है। यही काम हिमाचल हित में पंडित प्रताप चंद शर्मा ने किया।

मास्टर श्याम सुंदर उर्फ गुलाम जिलानी की हारमोनियम पेटी और प्रताप चंद शर्मा की आवाज के साथ धंतारू...भीड़ की गारंटी होती थी। उनके लिखे गीत उनकी आवाज में 'सांभÓ ने जरूर संभाले हैं लेकिन यू ट्यूब पर उनके लिखे गीत दूसरों की आवाज में जरूर मिलते हैं, जिन्हें सुन कर प्रताप चंद नहीं दिखते। किसी ने वाइस करेक्शन का सहारा लिया है तो किसी के साज आवाज से दूर भाग रहे हैं। यह समूचे लोक का हाल है। जिन्होंने उनके गीत इस्तेमाल किए, वे उन्हें भौतिक रूप में कुछ नहीं दे पाए।

जीवन के साथ प्रताप चंद शर्मा का अनुबंध तो अब टूटा, उनकी नौकरी भी लगातार अनुबंध पर रही जो उन्हें पेंशन का हकदार नहीं बना सकी। सम्मान बहुत मिले लेकिन सम्मानजनक रूप से घर गृहस्थी चले, इस बात का प्रबंध नहीं हो पाया। अर्जियां चलीं, थक गईं। कभी यह तर्क आया कि सरकार मदद नहीं कर सकती तो कभी यह तर्क आया कि उन्हें बुढ़ापा पेंशन मिलती है।

उन्हें सबसे पहले सम्मानित किया था डॉ. गौतम व्यथित की संस्था कांगड़ा लोक साहित्य परिषद ने। उसके बाद अन्य संस्थाओं ने भी सम्मानित किया लेकिन जो दर्जा सरकार की तरफ से उन्हें मिलना चाहिए था, नहीं मिला। अब अगर संभव हो तो उनके परिवार की सुध अवश्य लेनी चाहिए। उनसे जुड़ी स्मृतियां ही बची रहें, यह योगदान भी कम नहीं होगा। आने वाली पीढ़ी जान पाएगी कि एक था कर्मयोगी, जो ठंडी-ठंडी हवा बांटता रहा लेकिन खुद चीड़ की पत्तियों की तरह सुलगता रहा।


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