निजी भूमि से पेड़ काटने पर दो विभागों में मतभेद
निजी भूमि से पेड़ काटने पर दो विभागों में मतभेद है। मुख्य सचिव राम सुभाग सिंह की अध्यक्षता में हुई बैठक में मतभेद खुलकर सामने आए। बैठक में वन विभाग ने पेड़ों को लेकर राजस्व विभाग की अनुमति को अनुचित ठहराया व इस व्यवस्था को खत्म करने की पैरवी की।
शिमला, राज्य ब्यूरो। हिमाचल प्रदेश में निजी भूमि से मालिक के पेड़ काटने पर दो विभागों में मतभेद है। शिमला स्थित राज्य सचिवालय में बुधवार को मुख्य सचिव राम सुभाग सिंह की अध्यक्षता में हुई बैठक में ये मतभेद खुलकर सामने आए। 'खुदराओ दरख्तान मालिक सरकार मामले में हुई बैठक में वन विभाग ने पेड़ों को लेकर राजस्व विभाग की एंट्री यानी अनुमति को अनुचित ठहराया और इस व्यवस्था को खत्म करने की पैरवी की। जबकि राजस्व विभाग ने कहा कि किसान और भूमि मालिक अपनी जमीन से पेड़ नहीं काट सकता है। दलील दी गई कि अंग्रजों के शासनकाल से चली आ रही व्यवस्था को 1980 में वन संरक्षण अधिनियम के तहत भी नए कानून में अधिसूचित किया गया।
प्रदेश के तीन जिलों ऊना, हमीरपुर, कांगड़ा में इस कानून के कारण लोग सर्वाधिक परेशान हैं। मलकीयत भूमि में उगाए खैर के जंगल भी नहीं काटे जा सकते। इस मुद्दे का समाधान निकालने के लिए इन तीनों जिलों के उपायुक्त भी बैठक में बुलाए गए थे। बैठक में अतिरिक्त मुख्य सचिव वन निशा ङ्क्षसह, प्रधान सचिव राजस्व ओंकार शर्मा, पीसीसीएफ डा. सविता, पीसीसीएफ राजीव कुमार, कंजरवेटर आफ फारेस्ट अनिल जोशी शामिल थे।
बैठक बेनतीजा, फिर होगी
फिलहाल बैठक बेनतीजा रही और अब इस समस्या का समाधान निकालने के लिए दोबारा बैठक होगी। मुख्य सचिव राम सुभाग ङ्क्षसह ने अधिकारियों को उपयुक्त समाधान निकालने का निर्देश दिया, ताकि लोग अपनी जमीन में उगे पेड़ काट सकें।
अंग्रेजों के शासन में हुए दो बंदोबस्त
अंग्रेजों के शासनकाल में 1868 में पहली बार बंदोबस्त हुआ, तब जमीन का मालिक कोई भी हो सकता है, मगर उगे पेड़ों का मालिक सरकार होगी। उसके बाद 1919 में दोबारा बंदोबस्त हुआ, तब भी यथास्थिति रही। 1980 में पहली बार भारत सरकार ने वनों को लेकर एंट्री कर दी और मालिकाना हक सरकार को दिया। 1999 में भाजपा-हिविकां गठबंधन सरकार ने इस एंट्री को अनुचित बताया और इसे हटाने का प्रविधान करने का प्रस्ताव किया। मामला न्यायालय में होने के कारण लंबित है।
खैर नहीं काट सकता किसान
वन विभाग अपने स्तर पर खैर का जंगल काटने की इजाजत नहीं दे सकता है। इसके लिए लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। ऐसे में खैर के पेड़ की आयु अधिक होने के कारण उसकी उपयुक्त कीमत नहीं मिल पाती है। दस साल में एक बार बीट खुलती है, मगर इस तरह की व्यवस्था तीन जिलों के लिए नहीं है। एंट्री के झमेले के कारण किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है।