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जानलेवा बन रही इस आग को कृपया हवा न दीजिए, घटनाएं रोकने के साथ वन कर्मियों को प्रशिक्षित करने की भी जरूरत

Himachal Pradesh News विभाग अपने स्टाफ को नियमित प्रशिक्षण दे जरूरी सामान दे। गैंती और फावड़ा वे औजार हैं जिनसे नाली खोदी जाती है और सूखे पत्ते या झाड़ियां अलग की जाती हैं ताकि आग आगे न बढ़ती जाए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 26 May 2022 11:26 AM (IST)Updated: Thu, 26 May 2022 11:27 AM (IST)
कृपया इस आग को हवा न दीजिए। फाइल

कांगड़ा, नवनीत शर्मा। जंगल की आग को बुझाने में 90 प्रतिशत झुलस चुके वनरक्षक राजेश कुमार बुधवार को पंचतत्व में विलीन हो गए। ऊना जिले के बंगाणा क्षेत्र में वह अपना कर्तव्य निभा रहे थे। पीछे पत्नी और दो बच्चे हैं। एक वनरक्षक और मीलों लंबा वनक्षेत्र। रिमोट सेंसिंग तकनीक का शुक्रिया कि उधर आग लगी, इधर भारतीय वन सर्वेक्षण का संदेश आ जाता है कि अमुक स्थान पर आग लगी है। फायरवाचर भी होते हैं और यह पता चल भी जाए कि यह धुआं सा कहां से उठता है तो वह किन औजारों के साथ उसे बुझा लेगा? राहत इस बात की है कि विभागीय मंत्री उसे बलिदानी मानते हैं। वह न केवल राजकीय सम्मान के साथ किए गए राजेश कुमार के अंतिम संस्कार में शामिल हुए, अपितु उन्होंने यह भी कहा कि राजेश को बलिदानी घोषित करने की बात वह मंत्रिमंडल की बैठक में रखेंगे।

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प्रदेश के वनों में आग की घटनाएं 1577 और क्षति पौने चार करोड़ रुपये से अधिक। यह सरकारी आंकड़ा है। यही आग होना है कि जब भड़कती है तो भेद नहीं करती कि अमुक जगह को झुलसाना है और अमुक को नहीं। इसीलिए गर्मी में हिमाचल प्रदेश या उत्तराखंड में रात को पहाड़ पर जंगल जब सुलगते हैं तो आग कई प्रकार के दृश्य बनाती है। सुलगता हुआ लाल घेरा और स्याह वनस्पति। जंगल जिसे पालता पोसता है, उस अमूल्य वन्य प्राणी संपदा की अनसुनी चीत्कार। किसको कितना नुकसान हुआ, यहां वन विभाग का पैमाना अलग है और राजस्व विभाग का भिन्न। यह शोध की बात है कि जमीन और पौधों के अलावा पारिस्थितिकी संतुलन में भूमिका निभाने वाले जीव-जंतुओं की क्या कीमत लगी। जिन जीवों को बचाने के लिए लिए राजेश बलिदानी हो गया, उनका मोल क्या नुकसान में झलकता है?

जंगल की आग का विषय आने पर चीड़ को सबसे बड़े खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। हर दूसरा पर्यावरणविद या प्रकृतिप्रेमी चीड़, पाइन यानी पाइनस राक्सबर्गी के पीछे पड़ जाता है। कहा जाता है कि हिमाचल प्रदेश या उत्तराखंड के नीति नियंताओं ने चौड़ी पत्तियों वाले पेड़ों की ओर ध्यान नहीं दिया इसीलिए चीड़ बारूद बना हुआ है। सच यह भी है कि चीड़ ने ही हिमालय को बने रहने में मदद की है। यह भी ठीक है कि चीड़ के आसपास बहुत कुछ नहीं उगता, लेकिन कुछ प्रजातियां उगती हैं। चीड़ ने आपको और क्या-क्या दिया है, उसे क्यों भूलते हैं। दूसरी बात, चीड़ इतना समझदार है कि अपने पोर बंद कर लेता है और अपने लिए गर्मी में भी खड़े रहने का प्रबंध कर लेता है। इसका यह भाव नहीं कि चीड़ पर ही अटके रहें और चौड़ी पत्तियों वाले पेड़ों की ओर न जाएं। फिर बात आती है सरकार की। आग बिजली कड़कने से भड़के, बीड़ी-सिगरेट से सुलगे या फिर बेहतर घास की आस में सुलगाई जाए, अवैध कटान करने के बाद अपने कृत्यों पर पर्दा डालने के लिए जलाई जाए या फिर बिजली की तारें टकराने से लगे, इसे सरकार बुझाए। सोच में यह विषाणु बीते दशकों में पनप गया कि जो भी सरकारी है, वह अपना नहीं है।

हाल में कसौली के वायुसेना क्षेत्र तक आग पहुंच गई तो चंडीगढ़ से सेना की मदद लेनी पड़ी। यह भी सच है कि हेलीकाप्टर के माध्यम से आग बुझाने का खर्च आधे घंटे के लिए आठ लाख रुपये है। और यह खर्च, गरीब हिमाचल प्रदेश का वन विभाग कैसे उठा सकता है। हेलीकाप्टर से आग बुझाना तो कठिन है, लेकिन वन रक्षकों या वनों की आग बुझाने वाले अन्य कर्मचारियों को हेलमेट देना, गैंती फावड़ा देना और फायर प्रूफ किट देना भी महंगा काम है? यह तो वनों की आग बुझाने में काम आने वाला आधारभूत सामान है। मानक कहते हैं कि कपड़े ऐसे होने चाहिए जो 60 से 80 डिग्री सेल्सियस तापमान को ङोल सकें। क्या यह सब उपलब्ध करवाया जाता है? विभाग अपने स्टाफ को नियमित प्रशिक्षण दे, जरूरी सामान दे। गैंती और फावड़ा वे औजार हैं जिनसे नाली खोदी जाती है और सूखे पत्ते या झाड़ियां अलग की जाती हैं, ताकि आग आगे न बढ़ती जाए।

संयोग से प्रदेश के वन मंत्री के पास ही युवा सेवाएं और खेल विभाग भी है। युवा शक्ति के बल का संस्थायन किया जाए, कुछ टोलियां बनाई जाएं, उन्हें आग की दृष्टि से संवेदनशील महीनों में सक्रिय रहने को कहा जाए। पंचायतों को विश्वास में लिया जाए। सरकारी कार्यसंस्कृति की सबसे बड़ी कमी यह है कि वहां न गलत काम करने वाले को दंड है और न उत्कृष्ट कार्य करने वाले को पारितोषिक। वन विभाग में भी बढ़िया काम करने वालों को पारितोषिक की व्यवस्था की जाए। वनमंत्री राकेश पठानिया कहते हैं, ‘इस बार गर्मी समय से काफी पहले आ गई। हमने आग पर पूरी तरह से नजर रखने और बुझाने के लिए जनसहभागिता को अधिकतम करने का प्रयास किया है। टोलियों का गठन भी किया है, जो आग से बचाने में सहायक होती हैं।’ इधर सरकारी आंकड़े कहते हैं कि 2022-23 में आग पर नियंत्रण पाने का खर्च 8.5 करोड़ अनुमानित है। पहले यह कम था।

हिमाचल प्रदेश में अरबों की संख्या में जिस प्रकार पौधारोपण हुआ है, आग लगने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होना था। अब तक तो पेड़ ही पेड़ होते। लेकिन इंडिया स्टेट आफ फारेस्ट रिपोर्ट 2021 के अनुसार हिमाचल प्रदेश में रिजर्व वन क्षेत्र 15 वर्ग किलोमीटर कम हुआ है, जबकि सुरक्षित वन क्षेत्र 2019 की तुलना में 4243 वर्ग किलोमीटर कम हुआ है। हालांकि वर्गीकृत वनाधीन क्षेत्र 5173 वर्ग किलोमीटर बढ़ा है। जम्मू-कश्मीर ने घने वन खोए हैं, जबकि उसका खुला वन क्षेत्र बढ़ा है। हर साल तैयारी का दावा करना और तैयार होना, दोनों में अंतर है। कहीं ऐसा तो नहीं कि विभाग में अफसरों की कमी नहीं है, किंतु जिन्हें जमीन पर उतरना है, वही कम हों और निहत्थे भी? इधर, समाज गुलाम मोहम्मद कासिर की यह सीख याद रखे :

अब उसी आग में जलते हैं जिसे

अपने दामन से हवा दी हमने।

[राज्य संपादक, हिमाचल प्रदेश]


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