85 में से केवल 40 भट्ठे ही चल पाए जिग-जैग तकनीकि से
जागरण संवाददाता, यमुनानगर : जिला के सभी ईंट भट्ठों पर अभी तक जिग-जैग तकनीक लग नहीं पाई है। 85 में से केवल 40 भट्ठा संचालकों ने ही इस तकनीक को अपनाया है। सरकार ने घोषणा कर रखी है कि 30 सितंबर 2018 के बाद बिना जिग-जैग वाले भट्ठे नहीं चल पाएंगे। इसलिए 45 भट्ठों के इस सीजन में चलने पर संशय बना हुआ है। वहीं, सरकार के साथ भट्ठा संचालक भी इस तकनीक को कारगर मान रहे हैं, क्योंकि इससे प्रदूषण न के बराबर फैलेगा।
जागरण संवाददाता, यमुनानगर : जिला के सभी ईंट भट्ठों पर अभी तक जिग-जैग तकनीक लग नहीं पाई है। 85 में से केवल 40 भट्ठा संचालकों ने ही इस तकनीक को अपनाया है। सरकार ने घोषणा कर रखी है कि 30 सितंबर 2018 के बाद बिना जिग-जैग वाले भट्ठे नहीं चल पाएंगे। इसलिए 45 भट्ठों के इस सीजन में चलने पर संशय बना हुआ है। वहीं, सरकार के साथ भट्ठा संचालक भी इस तकनीक को कारगर मान रहे हैं, क्योंकि इससे प्रदूषण न के बराबर फैलेगा। प्रदेश सरकार ने दो साल पहले ईंट भट्ठा संचालकों को जिग-जैग तकनीक अपनाने के आदेश दिए थे, क्योंकि इस तकनीक से वायु प्रदूषण बहुत कम होता है। इसके लिए सरकार ने संचालकों को 30 सितंबर 2018 तक का समय दे रखा है। जो इस तकनीक को नहीं अपनाएगा वो इस सीजन में भट्ठे को नहीं चला सकेगा। जिग जैग तकनीक में खर्चा 15 से लाख से बढ़कर 40 लाख पार तक आता है।
क्या है जिग जैग तकनीक : पहले भट्ठे पर कच्ची ईंटों की जो लाइन बनाई जाती थी वे सीधी होती थी। इसमें 50 लाइनें सीधी लगाकर कोयला डाल कर आग लगाकर ईंटों को पकाया जा रहा था। जिसमें कोयले का धुआं व राख की मात्रा चिमनी से ज्यादा निकलती थी। इससे बहुत ज्यादा प्रदूषण होता था। इस समस्या को दूर करने के लिए अब जिग-जैग तकनीक अपनाई जा रही है। इसमें धुआं राख की मात्रा कम हो जाएगी, क्योंकि जिग-जैग का मतलब लाइन सीधी होते हुए सांप की तरह टेढ़ी- मेढ़ी होंगी। जिसमें धुंए में जो भारी कण होंगे वो नीचे बैठ जाएंगे। चिमनी के पास जनरेटर सेट से एक पंखा लगाया जाएगा जो धुंए को बाहर तक ले जाएगा। इस तकनीक से 60-70 फीसदी प्रदूषण कम होगा। पुराने और नई तकनीक के भटठों का अंतर: पुराने भट्ठे से प्रदूषण स्तर 750 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर है, जबकि नई तकनीक से प्रदूषण स्तर 200 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर होगा।
- पुराने भट्ठे से ए ग्रेड ईट 60 फीसदी निकलती हैं, जबकि जिग-जैग तकनीक से ए ग्रेड ईट 90 फीसदी निकलेगी।
- पुराने भट्ठे में एक बार में डेढ़ किलो तक साबूत कोयला डालना पड़ता था, जबकि जिग-जैग में कोयल को पीस कर डाला जाएगा। पिसाई के बाद मात्र 250 ग्राम कोयला ही डालना होगा।
- प्रोडक्शन कॉस्ट में कमी आ जाएगी।
- एक लाख ईंट पकाने में 26 टन कोयला खर्च होता था, जो इस तकनीक में 16 टन का ही लग सकेगा। नोटिस जारी किए हैं : आरओ
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्षेत्रिय अधिकारी रा¨जद्र शर्मा का कहना है कि 40 ईंट भट्ठों पर जिग-जैग तकनीक लग चुकी है। जिन्होंने नहीं लगाई है उन्हें नोटिस जारी कर दिए हैं। इसके अलावा एसोसिएशन पदाधिकारियों को भी बोल दिया है। नहीं चल पाएंगे भट्ठे : सुरेंद्र
डीएफएससी सुरेंद्र धौलरा का कहना है कि जिन भट्ठों पर जिग-जैग तकनीक नहीं लगेगी वो इस सीजन में नहीं चल पाएंगी। सरकार ने 30 सितंबर अंतिम तारीख दे रखी है।
समय दिया जाए : ब्रिक किलन आनर एसोसिएशन के महासचिव खुशीराम गोयल ने बताया कि जिग-जैग तकनीक कारगर साबित होगी। इससे वायु प्रदूषण तो कम होगा ही साथ में अच्छी क्वालिटी की ईंटें तो मिलेंगी। सभी भट्ठा संचालक इस तकनीक को लगाएंगे। हमारी सरकार से मांग है कि जिन भट्ठों पर अभी ये काम शुरू नहीं हो पाया है उन्हें समय दिया जाए।