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काजी के मुंह से संत की प्रशंसा सुनकर कपालमोचन में दौड़े आए थे बादशाह अकबर

तीर्थराज कपालमोचन केवल हिदू या सिख धर्म की आस्था का केंद्र नहीं रहा है बल्कि यहां पर बादशाह अकबर भी शीश नवाने आए थे। यहां आकर अकबर इतना खुश हुए कि प्राचीन डेरा श्रीराम मंदिर के तत्कालीन महंत भगवान दास के पूर्वजों को फारसी भाषा में लिखा एक पटनामा दिया था।

By JagranEdited By: Published: Mon, 11 Nov 2019 07:00 AM (IST)Updated: Mon, 11 Nov 2019 07:00 AM (IST)
काजी के मुंह से संत की प्रशंसा सुनकर कपालमोचन में दौड़े आए थे बादशाह अकबर

जागरण संवाददाता, कपालमोचन : तीर्थराज कपालमोचन केवल हिदू या सिख धर्म की आस्था का केंद्र नहीं रहा है, बल्कि यहां पर बादशाह अकबर भी शीश नवाने आए थे। यहां आकर अकबर इतना खुश हुए कि प्राचीन डेरा श्रीराम मंदिर के तत्कालीन महंत भगवान दास के पूर्वजों को फारसी भाषा में लिखा एक पटनामा दिया था।

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कपालमोचन में ठाकुरदास डेरा को श्रीराम मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इस डेरे के संत केशवदास दूधाधारी के समय में सम्राट अकबर आया था। बताया जाता है कि तब हिदू धर्म त्याग कर मुसलमान बने लोगों के द्वारा डेरे के साधुओं को माफी के रूप में सैकड़ों बीघे जमीन दान में दी गई थी। शास्त्रों में मशहूर है कि साढौरा परगना के काजी फीमूद्दीन इस क्षेत्र में सम्राट अकबर के सामंत थे। काजी के पास कोई संतान नहीं थी। वे संत की आध्यात्मिक शक्तियों से प्रभावित होकर यहां आए थे। संत ने अपने चारों तरफ एक लक्ष्मण रेखा बना रखी थी, जिससे दूसरा व्यक्ति उन्हें देख नहीं पाता था। तब काजी ने संत के बारे में अकबर को जानकारी दी। इसके बाद सम्राट स्वयं को यहां आने से रोक नहीं सके और संत से मिलकर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। अकबर द्वारा फारसी भाषा में लिखकर दिया गया पटनामा स्व. महंत भगवानदास के परिजन राजकुमार और केवल कृष्ण के पास आज भी है। राजकुमार ने बताया कि एक बार पुरातत्व विभाग की टीम इस पटानामा गई थी, लेकिन टीम इसे पढ़ नहीं सकी।

महाभारत और महापुराण में है वर्णन

कपालमोचन के नाम से प्रसिद्ध औशनस नामक इस तीर्थ में शुक्राचार्य ने भी तप किया था। शुक्राचार्य का नाम उशनस था, इसलिए यह स्थान उन्हीं की तपोस्थली के नाम से अर्थात औशनस नाम से विख्यात हो गया। औशनस तीर्थ का वर्णन महाभारत और वामन महापुराण में मौजूद है। इन महापुराणों के अनुसार भगवान श्रीराम चंद्र जिस समय दंडकारण्य में गए तो उन्होंने वहां के एक दुरात्मा राक्षस का सिर अपने तीव्र धार वाले बाण से काट दिया था। वह राक्षस तो मर गया, लेकिन उसका कटा हुआ सिर दूर जाकर महोदर नाम के एक तपस्वी मुनि की जांघ से चिपक गया। इस कौतुक को देखकर मुनि बहुत हैरान हुए। कुछ दिनों बाद उनकी जंघा में गंधपूर्ण स्त्राव होने लगा, जिससे वे बहुत दुखी हुए। उनके इस प्रकार संकट-ग्रस्त होने की सूचना जब अन्य ऋषियों-मुनियों को मिली तो वे एकत्रित होकर उनके पास गए। तब एक ऋषि ने महोदर मुनि को औशनस तीर्थ की यात्रा करने को कहा। तब समस्त भारत में औशनस ही एक ऐसा तीर्थ था जहां स्नान करने से इस संकट से छुटकारा मिल सकता था। ऋषियों के कहे अनुसार महोदर मुनि जैसे-तैसे दंडकारण्य से चलकर सरस्वती के तट पर द्वैतवन में पहुंचे, वहां जाकर उन्होंने ज्यो ही सरोवर में स्नान किया, त्यों ही राक्षस का कटा हुआ सिर उनकी जांघ से छूटकर जल में गिरकर गायब हो गया। इस घटना की सूचना उन ऋषियों को मिली, जिन्होंने उन्हें औशनस तीर्थ की यात्रा करने की सलाह दी थी तो वे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने ही औशनस तीर्थ को कपालमोचन नाम दिया। तब से यह तीर्थ कपालमोचन के नाम से प्रसिद्ध हो गया।


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