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मुश्किलों में भी मुस्कुरा पाई मंजिलें, ये है इनकी कहानी

बात कर रहे हैं उन महिलाओं की जिन्होंने मुश्किल परिस्थितियों में हार नहीं मानी। आज खुद के दम पर उन्होंने मुकाम हासिल किया। अब वे दूसरों के लिए नजीर बन गई हैं।

By Anurag ShuklaEdited By: Published: Fri, 08 Mar 2019 06:23 PM (IST)Updated: Fri, 08 Mar 2019 06:23 PM (IST)
मुश्किलों में भी मुस्कुरा पाई मंजिलें, ये है इनकी कहानी
मुश्किलों में भी मुस्कुरा पाई मंजिलें, ये है इनकी कहानी

पानीपत, जेएनएन। बदलते दौर में महिलाएं नए मापदंड स्थापित कर रही हैं। पुरुषों के अधीन माने जाने वाले कार्यों में भी महिलाएं महारथ हासिल कर रही है। कुछ ऐसा ही कर दिखाया करनाल बल्ला गांव की अर्चना ने। अर्चना करनाल की पहली बस ड्राइवर होने का गौरव हासिल किया। पुरुष प्रधान समाज के मिथक को तोड़ते हुए अर्चना ने बस के स्टेयरिंग को बखूबी संभाल लिया। अपने इस हुनर की वजह से वह जिस राह से भी बस लेकर गुजरती है, वहां लोग उन्हें देखकर सलाम करते हैं।

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बल्ला गांव की महिला अर्चना करनाल की सड़कों पर नगर निगम की सिटी बस को दौड़ा रही है। यह शहर महिलाओं को ई-रिक्शा चलाते हुए तो पहले देख चुका है, लेकिन यात्रियों से खचाखच भरी बस को एक महिला के नियंत्रण में देखने का अनुभव पहली बार हो रहा है। लोग हैरत के साथ देखते हैं कि एकमहिला भीड़-भाड़ भरे क्षेत्र से भी आसानी से बस निकाल कर ले जाती है। यात्री बस में सवार होते ही देखते हैं कि महिला ड्राइवर है तो वे बेहद सकारात्मक प्रतिक्रिया देते हैं।

पति की सहमति मिलने से राह हुई आसान
जींद के रजाना गांव की अर्चना का विवाह 12 साल पहले बल्ला गांव में ड्राइवर धर्मेद्र के साथ हुआ था। अर्चना  12वीं कक्षा तक पढ़ी है। विवाह के बाद वह अपने जीवन को किसी मुकाम पर ले जाने की चाहत रखती थी। इस बाबत उसने धर्मेद्र से बात की। इसके बाद उसने हैवी ड्राइविंग लाइसेंस बनवाया। तीन साल पहले उसने बस चलाने की नौकरी भी हासिल कर ली। पहले वह असंध के डीएवी पब्लिक स्कूल की बस चलाती थी। इसके बाद उसने सहकारी समिति की बस चलाई। उसने करनाल से लाडवा, कुरुक्षेत्र और शाहबाद तक के रूट पर बस चलाई। पिछले साल वह नगर निगम के अधीन शुरू हुई बस सेवा में ड्राइवर के तौर पर कार्यरत हुई। अर्चना का कहना है कि शुरुआत में लोगों की ओर से खूब टीका-टिप्पणी हुई। उनके फैसले को गलत बताया जाने लगा, लेकिन अब जब बस चलाते हुए सम्मान मिलता है तो खुशी का ठिकाना नहीं रहता। उसके बस चलाने के निर्णय का परिवार ने पूरा समर्थन किया। खासकर पति ने उनका हौसला बढ़ाया।

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शीला चहल।

परिवार को न्याय दिलाने के लिए आठ साल पहले वकील बनी थी शीला चहल
कैथल के नरड़ गांव निवासी शीला चहल आठ साल से वकील बनी हुई हैं। बीए और एलएलबी करने के बाद उन्होंने 2011 में वकालत को चुना था। इस पेशे में आने का कारण कोई और कोई नहीं, बल्कि उनका ही परिवार था। शीला ने बताया कि उस समय परिवार की स्थिति ऐसी हो गई थी कि उन्हें वकील बनना पड़ा। वकील बनी और काफी हद तक परिवार की दशा को भी सुधारा। उनका सपना अध्यापिका बनने का था, लेकिन पारिवारिक कारणों से वे नहीं बन पाईं। शुरू में घर वाले भी उसे यही कहते थे कि तुम लड़की हो और कम ही पढ़ाई करो। शादी कर अपने ससुराल चले जाओ। उन्होंने सबसे हट के काम किया और आज तक भी शादी नहीं की है। परिवार वाले पढ़ाई करने से मना करते थे, लेकिन वे पढ़ी और वकील भी बनी। अब उनके पास जो भी महिला से संबंधित केस आता है, उसमें महिला को न्याय दिलाने का हर प्रयास करती है। साल में करीब 20 महिलाओं को उनके हक दिलाने में कामयाब भी हो जाती हैं। महिलाओं से वे फीस भी कम ही लेती हैं। आठ साल से जिला बार में ही वकालत करा रही हैं। हालांकि जब वकालत शुरू की थी, तब इस पेशे में बहुत कम महिला वकील थीं। 

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मोनिका।

मोनिका भारद्वाज कर रही महिलाओं के उत्थान के लिए कार्य
शहरों की बात करें या गांव की, सच्चाई यह है कि महिलाओं की स्थिति आज भी आशा के अनुरूप नहीं है। मगर इसी स्थिति में बदलाव की मुहिम पर्यावरणविद एवं सामाजिक कार्यकर्ता मोनिका भारद्वाज छेड़े हुए है। समाज में महिलाओं के हक की आवाज बनकर उनकी सुरक्षा की प्रहरी बनकर रही हैं। महिला संबंधी सामाजिक कार्य करने में वे इतनी तल्लीन रहती हैं कि उनके इस जज्बे को पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी सराहा। महिलाओं को जागरूक कर रही मोनिका भारद्वाज के फेसबुक पर करीब 15 हजार फॉलोअर हैं।

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माधविका।

अपनी कविताओं से महिला सशक्तीकरण की अलख जगा रहीं डॉ. माधविका
मैं हूं तुम्हारे आंगन की कली, मुझको तुम विकसित होने दो, आने वाले कल में, एक पहचान बनूंगी, इस बात को तुम सब समझ लो...। तुम हो मेरे आंगन की कली, आने से जिसके मेरी जीवन बगिया महक उठी, रिमझिम बूंदों सा बजता जलतरंग हो तुम, नूपुर की ध्वनि से उभरता, हर स्वर हो तुम...। यह रचनाएं किसी कवि की नहीं बल्कि एक मां ने बेटियों को बचाने के लिए समाज को झकझोरने के लिए लिखी हैं। पेशे से डेंटल सर्जन डॉ. माधविका मदान ऐसा कोई मंच नहीं है, जहां पर बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान में अपनी सक्रिय भागीदारी निभाने में पीछे रही हों। वर्ष 2004 में कुरुक्षेत्र कस्बा लाडवा में बतौर डेंटल सर्जन तैनाती के बाद से वे समाज के हर उस जागरूकता कार्यक्रम से जुड़ीं जो समाज को नई दिशा प्रदान कर रहा है। इसके लिए उन्होंने बिना किसी स्वार्थ के कार्य किया, जिसका नतीजा यह है कि आज उनके नाम 20 से अधिक अवार्ड हैं।


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