Farmers Protest: स्पष्ट है कि जब आंदोलनरत किसान संगठनों की बात होगी ही नहीं तो बनेगी कैसे?
यदि कुछ कमियां हैं तो बातचीत कर संशोधन किया जा सकता है कराया जा सकता है लेकिन कानून रद कराने की बात बेमानी है। यह अलग बात है कि वे मुखर नहीं हैं। लेकिन कब तक? बात तो उनकी भी सुननी पड़ेगी।
पानीपत, जगदीश त्रिपाठी। सुप्रीम कोर्ट ने कृषि कानूनों के लागू होने पर फिलहाल रोक लगा दी है और इस पर विमर्श के लिए चार सदस्यीय कमेटी बना दी है, लेकिन आंदोलनरत किसान संगठनों का कहना है कि कानून रद होना चाहिए। इससे कम वे किसी बात पर सहमत नहीं, अभी तक आंदोलनरत संगठनों के नेताओं की जो प्रतिक्रया आई है उसके अनुसार वे कमेटी के सामने अपनी बात नहीं रखने जा रहे हैं। स्पष्ट है कि बात होगी ही नहीं तो बनेगी कैसे? और जब तक बात नहीं बनेगी, तब तक हरियाणा-दिल्ली की दोनों प्रमुख सीमाओं यानी सिंघु बार्डर (जो सोनीपत-दिल्ली की सीमा पर है) और टीकरी बार्डर (जो बहादुरगढ़-दिल्ली की सीमा पर है) पर पंजाब के आंदोलनकारी किसान संगठनों के लोग डेरा डाले रहेंगे। उनके साथ हरियाणा के कुछ लोग भी हैं। ये लोग कैसे हटेंगे और घर लौटेंगे।
बात सिर्फ इतनी नहीं कि ये लोग सिर्फ वहां डटे हुए हैं, बल्कि वे लगातार कुछ न कुछ ऐसा कर रहे हैं, जिससे लोग आक्रोशित हों। हद तो तब हो गई जब मुख्यमंत्री मनोहर लाल के किसान संवाद कार्यक्रम में तोड़फोड़ कर आंदोलनकारियों ने यह स्पष्ट कर दिया कि वही सच है, जो वे कह रहे हैं। वही होना चाहिए जो वे चाहें। अन्यथा जिस गांव में कार्यक्रम था, वहां बड़ी संख्या में ग्रामीण, जो किसान ही थे, उपस्थित थे। कुछ युवाओं ने आंदोलनकारियों का विरोध करने का भी प्रयास किया, लेकिन आंदोलनकारियों की संख्या अधिक थी और उन्हें पीछे हटना पड़ा। कार्यक्रम के दो दिन पहले भी आंदोलनरत किसान गांव में गए थे, लोगों को यह कहने के लिए कि कार्यक्रम नहीं होना चाहिए, लेकिन ग्रामीणों ने स्पष्ट कह दिया कि आप लोग राजनीति न करें, हम अपने गांव में कार्यक्रम कर रहे हैं। कार्यक्रम में तोड़फोड़ करने, उपद्रव करने की जिम्मेदारी भारतीय किसान यूनियन (चढूनी) के नेता गुरनाम सिंह चढूनी ने ली है।
मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने भी उनका नाम लिया, साथ में कांग्रेस नेताओं पर भी आरोप लगाया। लेकिन वे लोग जो कृषि कानूनों के विरोध का कारण राजनीतिक मानते हैं, उनका मानना है कि उपद्रव करने वालों का चेहरा भर ही चढूनी और उनके गुट वाले किसान संगठन के लोग थे। मुख्य भूमिका में तो कोई और था। लोकतंत्र में जो आज सत्ता में है, कल विपक्ष में होगा। जो आज विपक्ष में है, कल सत्ता में होगा। यदि विपक्ष आज सत्ता पाने के लिए ऐसी स्थितियां पैदा कर रहा है कि अराजकता फैले। हिंसा हो। सरकार गिरे। तो फिर कल उसके सत्ता में आने पर उसके ही फॉर्मूले को अपनाकर तत्कालीन विपक्ष भी उसका पराभव कर सकता है। तात्पर्य सिर्फ इतना है कि लोकतंत्र में तंत्र की इच्छा सवरेपरि होती है। भीड़ की नहीं।
करनाल के कैमला में हुई इस घटना से बहुत गलत संदेश गया है। हरियाणा में ही नहीं, देश में भी। दुर्भाग्य से हरियाणा में विपक्ष में बैठे नेता बजाय इसकी निंदा करने के समर्थन कर रहे हैं। यह ठीक है कि इसका तात्कालिक लाभ कांग्रेस को मिल सकता है, पर राज्य में विधानसभा चुनाव अभी पौने चार साल दूर हैं। और इस लिहाज से यह दूर की कौड़ी लगती है। वैसे भी भारतीयों की याद्दाश्त बहुत कमजोर होती है। ऐसा न होता तो वे आपातकाल को ढाई साल में ही न भूल जाते। इस आंदोलन का एक दुखद पहलू यह भी है कि हरियाणा में एक वर्ग ऐसा बन गया है जो यह चाहता है कि हर व्यक्ति इस आंदोलन का समर्थन करे। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम चमकाने वाले पहलवान योगेश्वर दत्त और बबीता फौगाट भारतीय जनता पार्टी में हैं। दोनों भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ चुके हैं। दोनों फेसबुक और ट्विटर पर भाजपा के पक्ष में, कृषि कानूनों के समर्थन में या कोई भी पोस्ट करते हैं तो उनको कमेंट में आंदोलन समर्थक गालियां देने लगते हैं।
दिलचस्प यह भी है कि ऐसा कमेंट करने वालों में बड़ी संख्या में हरियाणा के बाहर के भाजपा विरोधी लोग भी होते हैं और खुद को हरियाणवी और किसान कहने वाले लोग उन भद्दे कमेंट पर लाइक करते हैं। सपोर्ट करते हैं। इससे हरियाणवी समाज दो फाड़ हो रहा है। वैसे भी दक्षिण हरियाणा के किसान कृषि कानूनों के विरोध में नहीं हैं। दक्षिण हरियाणा के ही नहीं, उत्तर हरियाणा के भी बहुत से किसान विरोध में नहीं हैं।
[प्रभारी, हरियाणा राज्य डेस्क]