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Amazing Tradition: कपालमोचन मेले में अजब-गजब मान्यता, श्रद्धालु टीले पर मारते हैं जूते चप्पल

गांव संधाय के जंगल व खेतों के बीच बने इस गुरुद्वारे के बारे में लोग बहुत कम ही जानते हैं क्योंकि यह गांव आबादी व मुख्यालय से दूर हैं। सेवादार स्वर्ण सिंह बताते हैं कि गुरु गोबिंद सिंह भंगियानी का युद्ध जीतने के बाद कपालमोचन में आए थे।

By Rajesh KumarEdited By: Published: Sun, 14 Nov 2021 08:15 AM (IST)Updated: Sun, 14 Nov 2021 01:39 PM (IST)
यमुनानगर में स्थित कपालमोचन गुरुद्रारे की तस्वीर।

यमुनानगर, जागरण संवाददाता। कपालमोचन मेले को लेकर एक मान्यता यह भी है कि यहां से पांच किलोमीटर दूर गांव संधाय में राजा संध के टीले पर श्रद्धालु पहुंचते हैं। यहां टीले पर जूते, चप्पल मारते हैं। गालियां भी देते हैं। इसके बाद टीले के सामने गुरुद्वारे में माथा टेकने जाते हैं। हालांकि यहां तक पहुंचने की डगर भी आसान नहीं है। श्रद्धालुओं को यहां पहुंचने के लिए पैदल या फिर आटो में बैठकर ही जाना पड़ता है। मेले के दौरान तो यहां फिर भी लोगों की आवाजाही है। वरना रोजमर्रा में यहां वीराना रहता है। इसके बावजूद आस्था श्रद्धालुओं को यहां खींच लाती है। पांच किलोमीटर का सफर पैदल करने में भी श्रद्धालु बिल्कुल आलस नहीं करते। टीले से थोडी ही दूरी पर सती माता मंदिर में भी श्रद्धालुओं की आस्था है। यहां पर श्रद्धालु पहुंचते हैं और आम के पौधे लगाते हैं।

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जंगल व खेतों के बीच बना है गुरुद्वारा 

गांव संधाय के जंगल व खेतों के बीच बने इस गुरुद्वारे के बारे में लोग बहुत कम ही जानते हैं, क्योंकि यह गांव, आबादी व मुख्यालय से दूर हैं। पंजाब के मंडी गोबिंदगढ़ निवासी सेवादार स्वर्ण सिंह बताते हैं कि गुरु गोबिंद सिंह भंगियानी का युद्ध जीतने के बाद कपालमोचन में आए थे। वह यहां पर 52 दिन ठहरे थे। युद्ध के बाद उन्होंने कपालमोचन में आकर अपने अस्त्र-शस्त्र धोए थे। इसी दौरान 40 दिन तक हर रोज रात को गुरु गोबिंद सिंह संधाय गांव में तप करने के लिए आए थे। तब इस जगह को सिंधू वन कहा जाता था। गुरु जी अपने घोड़े पर आते थे। वे घोड़े को रास्ते में बनी शिव जी की बाड़ी यानि शिव मंदिर में पेड़ के नीचे बांध कर आते थे।

जरासंध के टीले को मारते हैं जूते-चप्पल

गुरुद्वारा के दाई तरफ 10 कदम की दूरी पर ही मिट्टी का बहुत ऊंचा टीला है। कहा जाता है कि यह कभी राजा संध का महल हुआ करता था, लेकिन एक सती द्वारा दिए गए श्राप के कारण उसका यह किला मिट्टी में तब्दील हो गया। मान्यता है कि महाभारत काल में यह स्थान सिंधूवन के नाम से प्रसिद्ध था। यहां पर अन्यायी राजा संध राज करता था। उसी के कारण यहां का नाम जरासंधाय पड़ा जो कालांतर में संधाय बन गया। राजा अपने सम्राज्य में होने वाली शादियों की डोली लूटकर संधाय स्थित राजमहल में लाकर उनकी इज्जत से खेलता था। इससे राज्य की जनता बड़ी परेशान थी, लेकिन कुछ कर पाने में असमर्थ थी। एक दिन राजा संध ने एक ऋषि कन्या सती ग्यासनी देवी पर कुदृष्टि डाली। वह उसे उठाकर अपने महल में ले गया, लेकिन वह स्नान करने के बहाना बनाकर महल से भाग निकली। राजा संध उसके पीछे-पीछे गया।

ग्यासनी देवी ने दिया श्राप

ग्यासनी देवी ने उसे श्राप दिया कि जिस महल में वह सुहागिनों की इज्जत से खिलवाड़ करता है वह जल्द ही बर्बाद हो जाएगा। राजा से बचने के लिए वह महल के पास  बने एक तालाब में सती हो गई। श्राप के कारण महल खंडहर में तब्दील हो गया। इसमें लगी ईंटे पांच हजार साल पुरानी बताई जाती हैं जिनका आकार 12 गुणा 12 इंच है। जो श्रद्धालु गुरुद्वारा में मत्था टेकने जाते हैं वो रास्ते में पड़ने वाले इस टीले पर पत्थर, जूते, चप्पल मारते हैं। लोग तो यहां तक कहते हैं कि टीले के अंदर एक मंदिर है, जिसमें रात को घंटियां बजती है जो अक्सर सुनाई देती है।


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