बेटियों की डायरी : बेटियों से न करें भेदभाव बेटों की तरह दें समान अवसर
सृष्टि की रचना करने से पहले परमात्मा के दिमाग में पुरुष और औरत, दो रूपों का ही चित्र उभ
सृष्टि की रचना करने से पहले परमात्मा के दिमाग में पुरुष और औरत, दो रूपों का ही चित्र उभरा होगा। इस चित्र ने ही शायद उन्हें सृष्टि रचना करने के लिए प्रेरित किया। ऐसी कल्पना इसलिए की जा सकती है, क्योंकि इन दोनों रूपों के बिना शायद कोई बड़े से बड़ा कल्पनाशील व्यक्ति सृष्टि की कल्पना न कर सके। ईश्वर ने दोनों को धरती पर अवतरित करने से पहले उनमें कुछ ऐसी भिन्नताएं पैदा कीं, जिससे दोनों को पहचानने में कोई दिक्कत न हो। छोटे से कारण की यह भिन्नता आगे चल कर भेदभाव और अहम का कारण बन जाएगी, परमात्मा को ऐसा मालूम होता तो कुछ उपाय भी कर लेते। खैर यह यह भेदभाव औरतों को आज सोचने पर मजबूर कर देता है कि उसे भगवान ने पुरुष क्यों नहीं बनाया। मानव सभ्यता के उत्थान और प्रगति का इतिहास, पुरुषों और महिलाओं के सामूहिक कार्य के आधार पर रचा गया। इसे भाग्य की विडंबना ही कहेंगे कि पुरुष इसमें महिलाओं की भूमिका नगण्य समक्ष कर हेय दृष्टि से देखने लगा।
विकास व प्रगति के लिहाज से मनुष्य आदिकाल से लेकर आज तक निरंतर आगे की ओर बढ़ता रहा है। इसी क्रमिक विकास ने उसकी कार्यक्षमता और जीवन स्तर में क्रांतिकारी परिवर्तन किए हैं। इस सभी क्रांतिकारी परिवर्तनों का श्रेय प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पुरुषों ने लिया। इसी प्रकार का शोषण विश्व स्तर पर तो हुआ लेकिन भारतीय संदर्भ में अधिक मुखर रूप से उभर कर सामने आया। महिलाओं को शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताडि़त कर उनकी रचनात्मकता और चहलकदमी को समाप्त करने जैसी अमानवीयता ने उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया।
उत्पीड़न की शुरुआत किसी निश्चित आयु वर्ग में न होकर आजीवन चलने वाली एक सामाजिक रीति बन चुकी है। जो भ्रूणहत्या, शिशु हत्या एवं समाज के अन्य दूषित रूपों दहेज, वेश्यावृत्ति, लैंगिक शोषण व दुष्कर्म जैसे कुरुपतम उत्पीड़नों में देखने को मिलती है। एक शोषक मानसिकता का उपासक होने से पुरुष समाज महिलाओं पर अत्याचार करता है। उन्हें मात्र घरेलू कार्यो तक सीमित रख कर उनकी इच्छाओं और अभिलाषाओ के घरौंदे को जलाकर राख कर देता है। पराया धन की अवधारणा ने भी भारतीय जनमानस को बेटियों के प्रति एक संकीर्ण दृष्टिकोण अपनाने के लिए मजबूर कर दिया है। इसी अवधारणा को ध्यान में रखकर अभिभावक बेटे व बेटियों की शिक्षा, खान-पान और मूलभूत चीजों के रखरखाव में अंतर करने लगते हैं।
पढ़े-लिखे लोगों में भी यह धारणा दृढ़ है कि वंश पुरुष से ही चलता है। पुरुष प्रधान समाज में बेटा अधिक आवश्यक है, बेटी नहीं। भविष्य में माता-पिता की देखभाल की जिम्मेदारी पुत्र के कंधों पर होती है। पुत्र की कामना लोगों में बलवती है जबकि वर्तमान में वास्तविकता कुछ और है। लड़कियां अपने माता-पिता से जितना स्नेह व आत्मीयता रखती हैं, संभवत: पुत्र नहीं रखता। इसके बावजूद लोगों की मानसिकता पुत्र के प्रति अधिक पक्षपात पूर्ण है। इसका परिणाम कन्या भ्रूणहत्या के रूप में सामने आ रहा है। समाज को यह रूढ़ीवादी मानसिकता बदलनी होगी। अन्यथा पुरुषों को जन्म देने वाली जब मां ही नहीं रहेगी तो मानव का आस्तित्व कैसे बचेगा।
हमारी संस्कृति, कानून और शिक्षा महिला की इज्जत करना सिखाते हैं। तो कमी कहां है। पूरे विश्व में 8 मार्च को महिला दिवस महज सम्मान कार्यक्रमों का आयोजन कर मनाया जाता है। ऐसे आयोजनों का खोखलापन तब तक दूर नहीं होगा, जब तक महिला को अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए उसे किसी कानून, सरकार, समाज और पुरुष की आवश्यकता नहीं रहेगी। समाज में धीरे धीरे जागृति आ रही है। बेटियों के प्रति बदलती सोच इस तरफ इशारे करती है कि भविष्य में बेटियां शिखर पर होगी।
वंशिका गुप्ता, बारहवीं कक्षा
एसडीवीएम सीनियर विंग
पानीपत ।