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दैनिक जागरण जलदान : जल के खजाने को भरने के प्रति गंभीर होने की जरूरत

इसे लोगों की नासमझी कहें या कुछ ओर। उनके पास जल भंडारण का जितना खजाना है, उस खजाने को निरंतर खाली करने में लगे हैं। इस जल रूपी इस खजाने को आने वाली पीढि़यां भी इस्तेमाल करती रहें, यह प्रयास करने वाले उंगलियों पर गिनने लायक ही नजर आते हैं। इन हालातों में धरती का जल भंडारण का खजाना खाली होता नजर आ रहा है। शहर के महल मोहल्ले में बनी नागपुरिया वालों की बावड़ी भी इसका उदाहरण नजर आती है।

By JagranEdited By: Published: Tue, 19 Jun 2018 06:55 PM (IST)Updated: Tue, 19 Jun 2018 06:55 PM (IST)
दैनिक जागरण जलदान : जल के खजाने को भरने के प्रति गंभीर होने की जरूरत

फोटो नं 27

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जागरण संवाददाता, नारनौल :

इसे लोगों की नासमझी कहें या कुछ ओर। उनके पास जल भंडारण का जितना खजाना है, उस खजाने को निरंतर खाली करने में लगे हैं। इस जल रूपी इस खजाने को आने वाली पीढि़यां भी इस्तेमाल करती रहें, यह प्रयास करने वाले उंगलियों पर गिनने लायक ही नजर आते हैं। इन हालातों में धरती का जल भंडारण का खजाना खाली होता नजर आ रहा है। शहर के महल मोहल्ले में बनी नागपुरिया वालों की बावड़ी भी इसका उदाहरण नजर आती है।

आमजन के व्यवहार से साफ लगता है कि उन्होंने मान लिया है कि धरती के नीचे अपार जल भंडार है। कितना भी खींचों, कभी खत्म नहीं होगा। लिहाजा धरती की कोख भरने के कोई खास उपक्रम नजर नहीं आ रहे। हमारे पूर्वजों ने जो उपक्रम जोहड़, बावड़ी व तालाब आदि के रूप में दिए, उनको सहेज कर रखने में भी कामयाब नहीं हो पाए। उनका सदुपयोग करना तो बहुत दूर की बात है।

ऐसे ही इंतजामों में शहर के महल मोहल्ला में बनी प्राचीन नागपुरिया वालों की बावड़ी भी देखी जा सकती है। यह बावड़ी मोहल्ला महल ही नहीं, अपितु शहर के आसपास के इलाकों में भी पानी उपलब्ध करवाने के लिए पर्याप्त होती थी। इस बावड़ी में प्राकृतिक जल मार्ग होने के चलते बरसात के दिनों में इसमें पानी भर जाता था। इसमें इतना पानी होता था कि वह पूरे सीजन आसानी से चलता था। करीब डेढ़ दशक पहले तक यह बावड़ी आबाद थी। मगर बाद में इसका जल स्तर घटने लग गया और लोगों ने भी इससे दूरी बनानी शुरू कर दी। यही वजह है कि यह बावड़ी अब खंडहर का रूप लेती जा रही है।

इस बावड़ी में अब झाड़ियों एवं पेड़-पौधों ने जगह बना ली है। यह सुनसान रहने लगी है और इसमें आमजन भी जाने से कतराने लगे हैं। इस बावड़ी में ही एक तरफ पानी का कुआं भी बना हुआ है। जब ये दोनों पानी से लबालब भरे रहते थे, तब तैराक लोग इनमें कूद-कूद कर नहाया करते थे। पिछले दो दशकों में नारनौल शहर का तेजी से विस्तार हुआ है। गांवों से नौकरी पेशा करने वाले लोगों की इसमें बड़ी भूमिका रही है। जमींदारों ने जमीन बेच दी और उस पर अब ऊंची-ऊंची इमारतें नजर आती हैं।

इन हालातों में शहर के अंदर प्राकृतिक जल स्त्रोत ही नहीं, अपितु जल भंडारण की क्षमता भी कम हुई है। हालात यह हैं कि नारनौल शहर की आबादी पीने के पानी के लिए पूर्णतया नहरी पानी योजनाओं पर निर्भर करने लगी है। अक्सर कभी यहां नहर आने में देरी हो जाए या पानी कम मात्रा में आ जाए तो लोगों को प्यास से जूझना पड़ता है। महिलाएं एक-एक घड़ा पानी के लिए भटकने को विवश हो जाती हैं। इन हालातों में पानी की भयावह तस्वीर कल्पना मात्र से ही उभर जाती है। मगर इस समस्या से कोई एक व्यक्ति विशेष या एक समूह नहीं निपट सकता। इसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपना किरदार पूरी ईमानदारी से निभाने की आवश्यकता है। अन्यथा वह दिन ज्यादा दूर नहीं, जब हमें हमारी आने वाली पीढि़यां पानी की एक-एक बूंद को कोसेंगी।


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