विकास के साथ ही सफेदे की कमाई के आगे तोड़ा पेड़ों ने दम
पेड़ पर्यावरण की रीढ़ होते हैं और कुरुक्षेत्र हरियाणा में हरे-भरे जिलों में गिना जाता है। सबसे बड़ी बात कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय की हरियाली। जहां पर एक समय में खेती होती थी और सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों की संख्या में पेड़ हैं। जिनमें फलों के पेड़ों के साथ ही अन्य प्रकार के फूल और पौधे भी हैं।
जागरण संवाददाता, कुरुक्षेत्र : पेड़ पर्यावरण की रीढ़ होते हैं और कुरुक्षेत्र हरियाणा में हरे-भरे जिलों में गिना जाता है। सबसे बड़ी बात कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय की हरियाली। जहां पर एक समय में खेती होती थी और सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों की संख्या में पेड़ हैं। जिनमें फलों के पेड़ों के साथ ही अन्य प्रकार के फूल और पौधे भी हैं। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय को वर्ष 2014 में नेशनल ग्रीन अवार्ड से भी नवाजा गया था, लेकिन पिछले वर्षों में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के पेड़ भी विकास की भेंट चढ़े तो कुछ ने सफेदे की कमाई के आगे दम तोड़ दिया। पिछले पांच सालों का ही देखें तो कुवि में लगभग दो से ढाई हजारे पेड़ों का काटा गया है। पर्यावरण खराब कर बनाया पर्यावरण विभाग का भवन
कुवि में पर्यावरण बचाने के लिए बनाए गए पर्यावरण विभाग के लिए भी पर्यावरण को दांव पर लगाया गया। इसके लिए इतना विशाल भवन तैयार किया गया कि उसके आसपास के और उस जगह पर लगे सैकड़ों पेड़ों भेंट चढ़ गए।
कुवि में परीक्षा शाखा तीन के लिए काटे 300 पेड़
कुवि में वर्ष 2014 में परीक्षा शाखा तीन का एक्टेंशन देने के लिए भी लगभग 300 पेड़ काट दिए गए थे। जिनमें बाद में कुछ में तो भवन बन गया और अन्य जगह में सफेदे के कमाई करने वाले पेड़ों को कुवि प्रशासन ने तरजीह दी। जबकि पर्यावरणविद नरेश भारद्वाज का कहना है कि सफेदे का पेड़ भारत जैसे देश के पर्यावरण के लिए अनुकूल नहीं है।
नहीं रुकी कचरे में आग
कुवि जैसे संस्थान में भी आज तक कचरे में लगने वाली आग नहीं रुकी। एक तो जहां कचरे का ढेर लगाया जाता है वहां पर हर दिन आग लगी रहती है। वहीं बीच-बीच में डस्टबिन में भी आग लगाई जाती है।
पानी आने जाने के चक्कर में टूट गई पक्षियों की लाइफ लाइन
कुवि के बीचों बीच बहते पानी का रजबाहा वर्षों से बह रहा था। जिससे ब्रह्म सरोवर में पानी डाला जाता था। इसके आसपास कुवि परिसर में हरियाली थी। जहां बड़े पेड़ों के होने के कारण बंदर, मोर व कई प्रकार के पक्षी और अन्य कई प्रकार के जानवर रहते थे। पानी की जरूरत रबवाहा पूरी करता था और पेड़ों से छांव मिलती थी। जिला प्रशासन ने ब्रह्मसरोवर में ऐसे चलाया चलता पानी कि रजबाहे को बंद कर उसमें पाइप लाइन दबा दी अब पक्षी वहां नहीं रहते।
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