खेती में लगातार बढ़ती लागत, बनी घाटे का सौदा
खेती किसानों के लिए घाटे का सौदा बनती जा रही है। पिछले कई सालों से लगातार बढ़ती जा रही महंगाई से इसकी लागत भी बढ़ गई है। ऐसे में बढ़ी लागत खेती की आमदनी को निगल रही है और किसान पर लगातार कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है। इस बढ़ते कर्ज का ही असर है कि नई पीढ़ी इससे लगातार मुंह मोड़ रही है। खेती के सहारे किसान के सामने अपने परिवार का पेट तक पालना मुश्किल हो रहा है। डीजल खाद बीज और महंगे होते पेस्टीसाइज के चलते खेत में खड़ी फसल किसान को राहत नहीं दे पा रही है। हर साल फसल पर पड़ने वाली आपदा से संकट और बढ़ता जा रहा है। कृषि वैज्ञानिकों की बड़ी फौज इन बड़ी और बढ़ती बीमारियों का छोटा नहीं कर पा रही है।
खेती में लगातार बढ़ती लागत, बनी घाटे का सौदा
जागरण संवाददाता, कुरुक्षेत्र: खेती किसानों के लिए घाटे का सौदा बनती जा रही है। पिछले कई सालों से लगातार बढ़ती जा रही महंगाई से इसकी लागत भी बढ़ गई है। ऐसे में बढ़ी लागत खेती की आमदनी को निगल रही है और किसान पर लगातार कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है। इस बढ़ते कर्ज का ही असर है कि नई पीढ़ी इससे लगातार मुंह मोड़ रही है। खेती के सहारे किसान के सामने अपने परिवार का पेट तक पालना मुश्किल हो रहा है। डीजल, खाद, बीज और महंगे होते पेस्टीसाइज के चलते खेत में खड़ी फसल किसान को राहत नहीं दे पा रही है। हर साल फसल पर पड़ने वाली आपदा से संकट और बढ़ता जा रहा है। कृषि वैज्ञानिकों की बड़ी फौज इन बड़ी और बढ़ती बीमारियों का छोटा नहीं कर पा रही है। सरकार के हस्तक्षेप के बाद कंपनियों का मुनाफा बढ़ा किसान हुए गरीब
कृषि विशेषज्ञ डॉ. बलदेव सिंह का कहना है कि 1960 के बाद से खेती में सरकार का हस्तक्षेप बढ़ा है। सरकार किसानों को लगातार यह कहती रही कि यूरिया डालो तो ये छूट मिलेगी, ट्रैक्टर खरीदो तो ये छूट मिलेगी, ये बीज लो, गायों का आर्टिफिशयल इंसेमिनेशन करा लो, ज्यादा उत्पादन होगा। सरकारें किसानों को प्रभावित करने के लिए लोभ देती रहीं और किसान भी करता रहा। अंत में उसका न तो बीज बचा, न खाद रही, न देसी नस्ल के जानवर रहे तो सरकार ने कह दिया कि किसान अपने कारणों से परेशान है। उनका कहना है कि कंपनियों का ही फायदा है, क्योंकि पूरा इकोनॉमिक मॉडल ही ऐसा है, जिसमें नीचे से पैसा निकाल कर ऊपर के उद्योगों को फायदा पहुंचाना है। ऐसे में जब हम किसान से अधिक खाद, अधिक उर्वरक, ज्यादा से ज्यादा मशीन और बीज का प्रयोग करने के लिए कहते हैं तो इसका सीधा मतलब है कि हम नीचे से पैसा निकाल कर कंपनियों तक पहुंचा रहे हैं। उद्योगों को सरकार की सब्सिडी मिलती है, जो कृषि क्षेत्र पर निर्भर नहीं करती। पूरी सब्सिडी कृषि बजट से जाती है। आज किसान एक बंधक है, वह ऐसी खेती का आदी हो गया है। जहां नुकसान से बचने के लिए उसे फर्टिलाइजर यूरिया डालना ही पड़ता है तो जाहिर है कि ये कंपनियां मुनाफे में रहेंगी। इसलिए इस उर्वरक की निर्भरता को कम करना होगा। लागत घटाने से ही मिल सकती है राहत
अग्रणी किसान महावीर सिंह ने कहा कि खेती पर लागत घटाने से ही राहत मिल सकती है। पिछले लगभग 15 सालों से लगातार खेती में लागत बढ़ी है। खाद, बीज की महंगाई के साथ-साथ सबमर्सिबल पर मोटी लागत आ रही है। जमीन का बंटवारा होने से छोटे किसानों की संख्या बढ़ती जा रही है और इसके संसाधन अधिक जुटाने पड़ रहे हैं। फसलों को तैयार करने के लिए पहले के मुकाबले पांच गुणा महंगे पेस्टीसाइड उपयोग करने पड़ रहे हैं। इसके बाद भी फसल बीमारियों से बच नहीं पा रही है। यही कारण है कि खेत से फसल को तैयार कर मंडी तक पहुंचाने में ही जो खर्च हो रहा है बेचने के बाद वही पूरा नहीं हो पा रहा है। उन्होंने बताया कि इस घाटे को कम करने के लिए लागत को कम करना होगा। लागत को कम करने के लिए सबसे बड़ी चुनौती कृषि वैज्ञानिकों के कंधों पर है। उन्हें ऐसे बीज तैयार करने होंगे, जिनमें बीमारी कम आए और उत्पादन ज्यादा हो। इसके साथ ही सरकार की ओर से खाद, बीज पर दी जाने वाली सब्सिडी बढ़ाई जाए और डीजल के दामों पर नियंत्रण किया जाए। किसान को भी अपनी जिम्मेदारी समझते हुए कम जमीन पर ट्रैक्टर व अन्य महंगे संसाधनों की खरीद पर होने वाले खर्च को कम करना होगा। इसके साथ ही अनाज मंडियों में पहुंची फसल की बिक्री पर भी सरकार को ध्यान देना होगा। कई बार फसल बिक्री के समय में किसानों पर हजारों रुपये के कट देने पड़ते हैं।