संस्कृति से लुप्त हो रहा गुड़ की भेली देने का रिवाज
संवाद सहयोगी बल्ला पहले आल्ली हवा रही ना पहलै आल्या पाणी.. गीत की ये पंक्तियां आज चरितार्थ
संवाद सहयोगी, बल्ला: पहले आल्ली हवा रही ना पहलै आल्या पाणी.. गीत की ये पंक्तियां आज चरितार्थ होती नजर आ रही हैं। हरियाणवी संस्कृति से जुड़े रीति-रिवाज धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे हैं। कुछ समय पहले शादी, भात और बच्चा पैदा होने पर गुड़ की भेली देने का रिवाज था, कितु अब दुकानों से भेलियां गायब हैं। बुजुर्ग कहते हैं कि गुड़ की भेली और गांव की पुरानी हवेली.. दोनों ही ग्रामीण स्तर पर लुप्त हो रही हैं।
वास्तव में गुड़ से बना चक्का भेली कहलाता था और यह सेर में मापा जाता था। आजकल जहां तौल के लिए किलोग्राम इस्तेमाल किया जाता है, किसी जमाने में सेर और छटाक प्रयोग करते थे। 16 छटाक का एक सेर बनता था और एक सेर में करीब 900 ग्राम वजन होता था। आज भी पुराने घरों में सेर का बट्टा देखने को मिल जाता है। सेर का स्थान किलोग्राम ने ले लिया। अढ़ाई सेर या पांच सेर की गुड़ की भेली दुकानों पर मिलती थी। बेटे होने की खुशी में गुड़ की भेली देने की परंपरा रही है। 1 से 14 जनवरी तक गुड़ की भेलियों की इस कदर मांग होती थी की दुकानों पर गुड़ ही गुड़ नजर आता था।
ग्रामीण जसबीर, कमला, रणबीर, सतपाल और दरिया सिंह का कहना है कि प्रसाद के रूप में खाड कशार, चूरमा, पताशे और बूंदी प्रयोग में लाई जाने लगी है। इसी प्रकार पुराने वक्त में गुड़ ही मिठाई होती थी। खुशी के अवसर पर गुड़ का लेनदेन होता था और गुड़ की ढाई या पांच सेर खुशी के मौके पर दिया जाता था। पहले किसी भी उत्सव पर चूरमा, मीठे चावल आदि बनाए जाते थे और वहीं परंपरा आज लुप्त हो गई है। 14 जनवरी मकर सक्रांति के उत्सव पर घी, शकर व चावल आज भी चाव से खाया जाता है। दुकानदार वीरेंद्र, दलबीर ने बताया कभी मकर संक्रांति पर गुड़ की भेली की मांग होती थी, लेकिन अब गुड़ की भेली के खरीदार नहीं रहे। इसलिए प्रचलन लुप्त हो गया है। 22 हजार आबादी वाले क्षेत्र में शायद किसी दुकान पर गुड़ की भेली मौजूद हो।