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गुस्‍से को जुनून में बदल वर्ल्‍ड बॉक्सिंग चैंपियनशिप में चांदी जीतने वाली बिटिया 'रानी' का भव्‍य स्‍वागत

रोहतक की मंजू पिता की मौत के बाद चिड़चड़ी होने लगी और फिर सात साल पहले बॉक्सिंग रिंग में कदम रखा। गांव के खेतों में अभ्‍यास किया और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। जानें कैसी मिली मंजिल

By Manoj KumarEdited By: Published: Wed, 16 Oct 2019 02:05 PM (IST)Updated: Wed, 16 Oct 2019 02:05 PM (IST)
गुस्‍से को जुनून में बदल वर्ल्‍ड बॉक्सिंग चैंपियनशिप में चांदी जीतने वाली बिटिया 'रानी' का भव्‍य स्‍वागत

रोहतक, जेएनएन। गुस्‍सा इंसान की सेहत के लिए बेहद खतरनाक होता है, यह बात सब जानते हैं। मगर इसी गुस्‍से को सही दिशा दे दी जाए तो कोई बड़ी मंजिल भी हासिल हो सकती है। आप सोच रहे होंगे ऐसा कैसे हो सकता है। मगर वर्ल्‍ड बॉक्सिंग चैंपियनशिप में रजत पदक जीतने वाली रोहतक के एक छोटे से गांव रिठाल की बेटी 20 वर्षीय मंजू रानी ने यह साबित कर दिखाया।

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वर्ल्‍ड महिला बॉक्सिंग चैंपियनशिप में देश के लिए रजत पदक विजेता मंजू बुधवार को रोहतक पहुंची तो उनके स्‍वागत के लिए लोग दौड़ पड़े। समर्थकों के साथ हाथ में बुके लिए पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा की पत्‍नी आशा हुड्डा भी नजर आई। मंजू को सभी ने आर्शीवाद दिया और कहा कि देश में हर बेटी मंजू जैसी हो। मगर पिछले सात साल में मंजू रानी का यहां तक का सफर आसान नहीं रहा है। मंजू के संघर्ष की पूरी कहानी जानने के लिए पढ़ें ये पूरी खबर.......

2012 में शुरू हुए उनके खेल कॅरियर में उन्होंने कड़ा संघर्ष किया। जिसमें उनके गांव के ही कोच साहब सिंह की विशेष भूमिका रही है। साहब सिंह ने संसाधनों के अभाव में भी मंजू को विश्वस्तरीय मुक्केबाज बना दिया है। उन्होंने ही मंजू की प्रतिभा को पहचान कर उनको खेल का ककहरा सिखाया।

2012 में मंजू ने बॉक्सिंग रिंग में कदम रखा और अपने गांव के खेतों में जाकर अभ्यास किया। कुछ माह बाद उसी साल उनके गांव में बॉक्सिंग कोच सूबे सिंह बेनीवाल की नियुक्ति हो गई। जिससे बेटियों की प्रतिभा में और निखार आया। जिसके बाद मंजू ने भी जिला, स्टेट व नेशनल में अनेक मेडल जीते। दो साल बाद कोच बेनीवाल को पदोन्नति मिली लेकिन उनकी जगह अन्य कोच उपलब्ध नहीं हुआ तो साहब सिंह ने फिर से मुख्य कोच की भूमिका निभानी शुरू कर दी। वे खुद कबड्डी के नेशनल खिलाड़ी रहे हैं।

पिता की मौत के बाद बनने लगी थी गुस्‍सैल, फिर सीख नया सबक

मंजू जब 12 साल की थी तो उनके पिता भीमसेन की कैंसर से मौत हो गई थी। भीमसेन बीएसएफ जवान थे। मंजू पिता की मौत के सदमे से उबर नहीं पा रही थी और इसी कारण बहुत चिड़चिड़ी और गुस्सैल होने लगी थी। उनके गुस्से का सही इस्तेमाल करने के लिए उन्होंने बॉक्सिंग शुरू की। लेकिन गरीबी रास्ते में बाधा बनी गई। मंजू ने भी हार नहीं मानी और हर मुकाबले में अच्छे पंच लगाती चली गई। उनकी मां ईशवंती भी बेटी को आगे बढ़ाने में जुट गई। मंजू ने भी परिजनों व कोच की उम्मीदों के मुताबिक प्रदर्शन किया है और अनेक मेडल अपने नाम किए है। हालांकि कोच की मानें तो यहां तक पहुंचने में मंजू के साथ शुरुआत में भेदभाव भी हुआ है। इसी कारण वे हरियाणा की बजाय पंजाब का प्रतिनिधित्व करने लगी।

मां बोली, बेटी की चांदी सोने से कम नहीं

पंजाब की लवली यूनिवर्सिटी में बीएससी द्वितीय वर्ष की छात्रा मंजू रानी फाइनल मैच में कड़ी टक्‍कर देने के बावजूद हार गई। मगर रजत पदक पक्‍का कर लिया। बेटी रोहतक लौटी तो मां ईशवंती देवी खुशी के मारे फूली नहीं समा रही थी। मां ने कहा बेटी से उम्‍मीद तो गोल्‍ड की थी, मगर बेटी की चांदी भी सोने से कम नहीं है। कोच साहब सिंह का कहना है कि 2014 में मंजू ने जूनियर स्टेट बॉक्सिंग चैंपियनशिप गोल्ड मेडल जीता और फिर इसी साल जूनियर नेशनल बॉक्सिंग चैंपियनशिप में भी गोल्ड जीता। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और कई मेडल हासिल की नाम रोशन किया। 2017 में रोहतक के साई सेंटर में उनका पहला अंतरराष्ट्रीय मुकाबला हुआ। जिसमें उन्होंने श्रीलंका की प्रतिद्वंद्वी को हराकर गोल्ड मेडल जीत चुकी है।


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