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राम मंदिर के साथ ही फिर से बढ़ने लगा मिट्टी के दीयों का क्रेज, भा रही मिट्टी की सौंधी खुशबू

अयोध्या में लाखों दीये जलाकर भगवान राम की पूजा शुरू की गई है उसके बाद से मांग बढ़ गई है। लेकिन पहले मिट्टी मुफ्त में मिल जाती थी। अब एक रेहड़ी मिट्टी के लिए पांच से छह सौ रुपये तक चुकाने पड़ते हैं।

By Umesh KdhyaniEdited By: Published: Thu, 29 Oct 2020 03:26 PM (IST)Updated: Thu, 29 Oct 2020 03:26 PM (IST)
राम मंदिर के साथ ही फिर से बढ़ने लगा मिट्टी के दीयों का क्रेज, भा रही मिट्टी की सौंधी खुशबू
दिवाली को लेकर रोहतक के महम में लगभग एक दर्जन परिवार मिट्टी के दीये बनाने में जुटे हैं।

हिसार/महम, जेएनएन : बेशक अब ज्यादातर चीनी लड़ियां दिवाली की शोभा बढ़ाती नजर आती हैं। लेकिन मिट्टी के दीयों का दौर अभी गया नहीं है। आज भी रोहतक के महम में मिट्टी के दीये खूब बनते हैं। दीये बनाने वाले परिवार इन दिनों इस कार्य में जुटे हुए हैं। कस्बे में लगभग एक दर्जन परिवार इस कार्य को कर रहे हैं। 

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मिट्टी के दीये बनाने वाले वीरभान ने बताया कि एक बार तो मिट्टी के दीये बनाने का कार्य बिल्कुल न के बराबर हो गया था। लेकिन अयोध्या नगरी में लाखों दीये जलाकर भगवान राम की आराधना शुरू हुई है, उससे दीयों की मांग और अधिक बढ़ी है। वीरभान ने बताया कि एक समय था जब वह दिवाली के एक सीजन में 40 से 50 हजार तक दीये तैयार कर देते थे। लेकिन अब यह संख्या 10 से 15 हजार में ही रह गयी है। वे अधिकतर दीये घरों में जाकर सप्लाई करते हैं। इसके बदले अनाज, नकद राशि व अन्य सामान ले लेते हैं। अब मिट्टी के बर्तन बनाने में अधिक परेशानी मिट्टी की आने लगी है। पहले मिट्टी मुफ्त में उपलब्ध हो जाती थी। लेकिन अब मिट्टी की एक रेहड़ी 500 से 600 रुपये में खरीदनी पड़ती है।

बिजली के चाक होने से मिली सुविधा

मिट्टी के दीये बनाने वाले साधू राम, रमेश कुमार व श्याम लाल ने बताया कि पहले दीये, करवा व कमोई बनाने का चाक हाथ से चलाया जाता था। उस समय पूरा परिवार काम में व्यस्त रहता था। लेकिन अब चाक पर बिजली की मोटर रखने से काम बहुत आसान हो गया है। कारीगर अपने हिसाब से चाक की स्पीड कम या ज्यादा कर सकता है। 

पूर्वजों ने बचपन में ही सिखाया था कार्य

करीब 60 वर्षीय शीशराम व 55 वर्षीय वीरभान ने बताया कि उनके पिता संतराम प्रजापत काफी मेहनती व्यक्ति रहे हैं। उन्होंने 87 साल की उमर में भी परिवार के अन्य सदस्यों से अधिक काम किया है। लगभग तीन वर्ष पहले उनकी मृत्यु के पश्चात उनके दोनों पुत्रों ने इस कार्य को शुरू किया, ताकि परिवारों को मिट्टी के बर्तनों से वंचित न रहना पड़े।


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