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माउंट एवरेस्ट दिवस विशेष : अनीता कुंडू बोलीं- उबलते जुनून से पिघलता है पहाड़ों पर जमता खून

तीन बार एवरेस्ट पर तिरंगा फहराने वाली हिसार के फरीदपुर गांव की बेटी अनीता बोलीं-महिलाओं के लिए पहाड़ चढऩा पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा मुश्किल। मगर हौसला हिम्‍मत नहीं हारने देता है।

By Manoj KumarEdited By: Published: Fri, 29 May 2020 03:22 PM (IST)Updated: Fri, 29 May 2020 03:48 PM (IST)
माउंट एवरेस्ट दिवस विशेष : अनीता कुंडू बोलीं- उबलते जुनून से पिघलता है पहाड़ों पर जमता खून

हिसार [श्याम नंदन कुमार] नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है, चढ़ती दीवारों पर सौ बार फिसलती है, मन का विश्वास रगो में साहस भरता, गिरकर चढऩा, चढ़कर गिरना नहीं उसे अखरता, आखिर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती..........

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यह वे सूत्र वाक्य हैं जिनसे प्रेरणा ग्रहण कर मैदानी इलाके की बेटियां आकाश को छूटी पर्वतों की चोटियों पर चढ़ जाती हैं। विश्व के सात प्रमुख पर्वत चोटियों को अपने मजबूत कदमों से फतह कर चुकीं हिसार की बेटी अनीता कुंडू कहती हैं कि पहाड़ चढने के लिए पहाड़ सा साहस चाहिए। हर कदम पर मौत सामने खड़ी दिखती है। कोई भी छोटी से छोटी भूल आपको हजारों फीट गहरी खाई में गिरा सकती हैं।

हिम स्खलन, हिमपात, बर्फ की आंधी ये ऐसे अवरोध हैं जो कभी भी आपको आसान लगती मंजिल को दुरूह बना सकते हैं। ये समस्याएं तो कॉमन हैं जो सभी पर्वतारोहियों के सामने आती हैं लेकिन अलग तरह की शारीरिक बनावट और गुणधर्म के कारण महिलाओं को विशेष तरह की समस्याएं भी झेलनी पड़ती हैं। माउंट एवरेस्ट दिवस पर आइए जानते हैं पर्वतारोहण की चुनौतियों के बारे में तीन बार माउंट एवरेस्ट की चोटी को नाप चुकीं पर्वतारोही बेटी अनीता कुंडू से।  कुंडू ने 18 मई, 2013 को नेपाल के रास्ते और 21 मई 2017 को चीन के रास्ते और 21 मई 2019 को फिर नेपाल के रास्ते माउंट एवरेस्ट फतह किया है।

---21 मई 2019, सुबह के सात बजे थे। मैं माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा लहरा रही थी। यह तीसरा मौका था जब मैंने इस चोटी पर तिरंगा लहराया था। इस बार चढ़ाई मैंने नेपाल की तरफ से की थी। लुकला से बेस कैंप तक पहुंचने में मुझे 12 दिन लग गए थे। बेस कैंप पर कई दिन तक प्रैक्टिस के बाद 5 मई को ऊपर चढऩा शुरू किया। दूसरे कैम्प में ही पहुंची थी कि 7 मई को बर्फीले तूफान ने रास्ता रोक लिया और उनको वापस बेस कैंप लौटना पड़ा। तूफान शांत होने के बाद दोबारा 10 मई को बेस कैंप से चढ़ाई शुरू की, लेकिन 12 को फिर मौसम खराब हो गया। मैं 14 पर्वतारोहियों के एक दल का नेतृत्व कर रही थी। 16 मई को फिर बेस कैंप से मिशन शुरू किया और कठिन संघर्ष करके और दुर्गम बर्फीले रास्तों को पार करते हुए बिना ऑक्सीजन के 21 मई को सुबह 7 बजे एवरेस्ट की चोटी पर झंडा फहराया। 

ये वे समस्याएं हैं जो सभी लोग जानते हैं लेकिन कुछ खास बातें हैं जिसे सिर्फ पर्वतारोही ही जानते हैं। पर्वतारोहण के लिए एनर्जी होना बहुत जरूरी है। शरीर में पानी पर्याप्त मात्रा में चाहिए लेकिन पहाड़ पर पानी की कमी गंभीर समस्या है। ऊंचाई पर चढ़ते समय अपने साथ वजन कम रखना होता है, क्योंकि वैसे ही पर्वतारोहण के उपकरण आपको साथ में कैरी करना होता है। टेंट, आक्सीजन सिलेंडर, मेडिसीन बॉक्स, कई जूते, शूज के नीचे लगने वाला क्रैम्पो, जुमार एसेंडर , बर्फ  काटने की कुल्हाड़ी, हेल्मेट, आठ दस जोड़ी ग्लब्स, 6 से 7 गोगल्स के अलावा आपको कुछ बोतल पानी और खाने का सामान भी साथ लेकर चलना होता है। ये सारी चीजें ऊंचाई पर आपको खुद ही खींचनी होती है। पर्वतारोही अपने साथ ड्राई फ्रूट वगैरह ले जाते हैं जो नाकाफी होते हैं।

मैं बेस कैंप से सम्मिट तक जाने के वक्त ड्राई फ्रूटस, चॉकलेट, चना की दाल, टॉफियां लेकर जाती हूं। चढ़ाई के दौरान थकान की वजह से ये सारी वस्तुएं स्वादहीन लगती हैं लेकिन जीने और मिशन को पूरा करने के लिए एनर्जी जरूरी है। पर्वतारोहण की सबसे बड़ी दवा पानी है और पानी वहां मिलता नहीं है। जोर से पेशाब लगता है, नसें फटने को होती हैं लेकिन पेशाब निकल नहीं पाता। इन्वायरमेंट के अनुसार ढलने के लिए कुछ लोग ऊपर जाकर दवा खा लेते हैं लेकिन यह जानलेवा है। ऐसे लोग ही अधिक मरते हैं।

पर्वतारोहण के दौरान सबसे बड़ी समस्या एकाकीपन होता है। आपके ग्रुप में अलग-अलग देशों के लोग होते हैं जो आपकी भाषा नहीं समझते और आप उनकी भाषा नहीं समझते। जो भी कहना होता है, इशारे  में कहना होता है। टीम के सभी लोग एक-दूसरे की मदद करते हैं। कोई नहीं चाहता कि अभियान में उनका कोई साथी मिस हो।  बात करने के लिए कोई नहीं होता। बुक और फोन ही आपके मित्र होता है। मोबाइल से लैग्वेज ट्रांसलेट कर एक दूसरे की बात को समझते हैं।

यहां एक बात और बताना चाहती हूं कि मिशन पुरुषों की अपेक्षा लड़कियों के लिए टफ होता है। आपस में कैंप शेयर करना होता है। हालांकि पर्वतारोही नेकनीयत होते हैं। वैसे भी वहां सबको अपनी जान और मिशन की पड़ी रहती है। पर्वतारोहण के दौरान अगर मासिक धर्म आ जाए तो और अधिक परेशानी होती है। हाइजिन का विशेष ख्याल रखना पड़ता है। माइनस 50 डिग्री तापमान में कपड़े उतारने पड़ते हैं। सबसे बड़ी बात वहां कोई जीत का जश्न मनाने वाला नहीं होता। अपनी पीठ खुद थपथपानी पड़ती है। चाइना साइड से तो चढ़ाई और खड़ी है। कई बार मुंह से खून निकलने लगता है। होठ काले पड़ जाते हैं और नाखून निकल जाते हैं। सबसे बड़ी बात हम ग्लेशियर को गंदा नहीं करते। पर्वतारोही टायलेट बॉक्स साथ रखते हैं और वापसी में उसे अपने साथ लाते हैं।


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