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सियासत में ‘न्यौंदा’ बोले तो समझो मामला गड़बड़ है, जानें क्या होता है ये...

हरियाणा के राजनीतिक गलियारों में आजकल एक शब्द चर्चा में है- न्यौंदा। हरियाणवी बोली के इस शब्द का मतलब शगुन है मगर परिस्थितियों के हिसाब से इसके मायने बदल जाते हैं।

By Kamlesh BhattEdited By: Published: Mon, 23 Sep 2019 01:20 PM (IST)Updated: Mon, 23 Sep 2019 01:21 PM (IST)
सियासत में ‘न्यौंदा’ बोले तो समझो मामला गड़बड़ है, जानें क्या होता है ये...

हिसार [राकेश क्रांति]। हरियाणा के राजनीतिक गलियारों में आजकल एक शब्द चर्चा में है- न्यौंदा। हरियाणवी बोली के इस शब्द का मतलब शगुन है, मगर परिस्थितियों के हिसाब से इसके मायने बदल जाते हैं। शादी-ब्याह हो, लड़ाई-झगड़ा हो या फिर राजनीतिक चर्चा, न्यौंदा शब्द की अपनी पहचान है। शादी में न्यौंदा खुशी में डालते हैं यानी सकारात्मक पहलू। भाईचारे को मजबूत करने वाला एक रिवाज। मगर राजनीतिक रिश्तों में जब खटास आ जाए तो इस शब्द में नकारात्मकता आ जाती है। यानी छींटाकशी, खींचतान और तंज। खासतौर पर चुनावी महासमर में नेता जब एक-दूसरे को न्यौंदा डालते हैं तो पकी-पकाई राजनीतिक खिचड़ी भी जल जाती है।

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हरियाणा में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है तो न्यौंदा शब्द फिर से फिजाओं में डोलने लगा है। हिसाब-किताब बराबर करने की बात होने लगी है। इससे कोई दल अछूता नहीं है। कांग्रेस, इनेलो और जजपा ज्यादा प्रभावित हैं तो भाजपा थोड़ी कम। वैसे तो नेताओं के बीच न्यौंदा निंदारी की रस्म लंबे अर्से से चल रही है, मगर चुनावी बात करें तो इसकी ताजा शुरुआत जींद उपचुनाव से हुई थी।

दिल्ली से एक नेताजी अति उत्साहित होकर उपचुनाव लड़ने जींद पहुंच गए। तब भाजपा के पंडित जी ने ‘कांटा निकल गया शब्द का ऐसा इस्तेमाल किया कि कांग्रेस में राजनीतिक न्यौंदा डालने की आधारशिला पड़ गई। प्रदेश अध्यक्ष का साथ मिलने के बावजूद दिल्ली दरबार के नेताजी उपचुनाव हार गए। हार का असर लोकसभा चुनाव में देखने को मिला। न्यौंदा ऐसा डला कि राजनीति के दिग्गज पिता-पुत्र अपने गढ़ में चारों खाने चित हो गए। अब न्यौंदा डालने की बारी दिग्गज की थी। दबाव की राजनीति के तहत ऐसी पटकथा लिखी कि प्रदेश अध्यक्ष नक्शे से बाहर हो गए और चुनावी कमान खुद के हाथ में ले ली। अब न्यौंदा डालने की बारी पूर्व अध्यक्ष की है। यह कैसा होगा, उनकी खुद की जुबानी जाहिर हो चुका है। वह कह चुके हैं- जैसा सहयोग मिला था, वैसा देंगे। उनके शब्दबाण भी रोजाना तीखे होने लगे हैं। परिणाम पहले जैसे होंगे, अभी कहना जल्दबाजी होगा मगर असर पड़ना लाजिमी है।

ऐसा ही कुछ हाल चाचा-भतीजों का है। जींद उपचुनाव से तलवारें खींचने की जो कहानी शुरू हुई वह वाया लोकसभा चुनाव अब विधानसभा चुनाव तक पहुंच चुकी है। चाचा-भतीजे अपने गढ़े संकट में घिर गए हैं। लोकसभा चुनाव में भाजपा उनके गढ़ में कमल खिलाकर बड़ी चुनौती पेश कर ही चुकी है।

जननायक जनता पार्टी के प्रमुख को पहले अपने भाई के डेब्यू चुनाव में हार देखनी पड़ी और फिर खुद को भी शिकस्त का सामना करना पड़ा। इसी तरह इनेलो की बागडोर संभाल रहे चाचा को भी अपने बेटे के डेब्यू चुनाव में मुंह की खानी पड़ी । परिवार की राजनीति को एकजुट करने के खाप-पंचायतों के प्रयास विफल होने के बाद अब चाचा-भतीजा विधानसभा चुनाव में पुराना हिसाब-किताब पूरा करने में कोई कसर छोड़ेंगे, ऐसा हालातों से साफ नजर आ रहा है।

इसी तरह भाजपा के उन दिग्गज नेताओं के इलाकों पर भी न्यौंदा-निंदारी के बादल मंडरा रहे हैं, जिनके हलकों में लोकसभा चुनाव में पार्टी प्रत्याशियों को शिकस्त का सामना करना पड़ा था। कुल मिलाकर इस चुनाव में न्यौंदा डालने की परंपरा बरकरार रहने की तस्वीर नजर आती है। राजनीति के समर में दिग्गजों की धूणी रम चुकी है। ऐसे में चिमटा बजना भी तय है। और हर पक्ष इसके लिए तैयार है।

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