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सृष्टि ने मनुष्यों को एक ही चेतना के साथ दिया जन्म

सामाजिक एकता और समरसता का शाब्दिक अर्थ सभी को अपने समान समझना।

By JagranEdited By: Published: Thu, 07 Oct 2021 06:14 AM (IST)Updated: Thu, 07 Oct 2021 06:14 AM (IST)
सृष्टि ने मनुष्यों को एक ही चेतना के साथ दिया जन्म
सृष्टि ने मनुष्यों को एक ही चेतना के साथ दिया जन्म

संस्कारशाला:::::

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फोटो : छह

सामाजिक एकता और समरसता का शाब्दिक अर्थ सभी को अपने समान समझने से है। ईश्वर ने सृष्टि में सभी मनुष्यों को एक ही चेतना के साथ जन्म दिया है। इस बात को हृदय से स्वीकार करना ही सामाजिक समरसता है। सामाजिक एकता और समरसता विविध घटकों का समावेश होता है जो घटक पूर्ण रूप से लेकर किसी समाज को आधुनिक और सामाजिक बनाते है। इनमें से कुछ प्रमुख घटक निम्नलिखित है, शांतिपूर्ण सह अस्तित्व, आत्मीयता, समन्वय, बंधुत्व, सर्वहित, समूह चेतना। ये घटक समाज की एवं राष्ट्र की मूलभूत आवश्यकता है, इसे हम कुछ इस प्रकार समझ सकते हैं कि ''अगर किसी मनुष्य के एक हाथ में घाव हो जाए तो उसे काट कर अलग नहीं किया जाता बल्कि उसका उपचार किया जाता है ।'' वर्तमान परिस्थिति में भारतीय समाज में आज भी जाति व्यवस्था व्यापक स्तर पर विद्यमान है जिसके फलस्वरूप समाज का एक बड़ा वर्ग आज भी राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में पूर्णता भागीदार नहीं बन पा रहा है । यह आवश्यक है कि समाज के इस वर्ग को भी मुख्यधारा में लाकर उसका सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, मनोविज्ञानिक विकास सुनिश्चित करके समाज और राष्ट्र के निर्माण में सहयोग लिया जाए। जिस समाज रचना में उच्च तत्व व्यवहार्य हो सकते है, वहीं समाज रचना सब में श्रेष्ठ है । जिस समाज रचना में वे व्यवहार्य नहीं हो सकते, उस समाज रचना को भंग कर उसके स्थान पर शीघ्र नयी रचना बनायी जाए - ऐसा स्वामी विवेकानन्द का मत था । श्री गुरु जी ने तो इस हिन्दू (भारत) भूमि पर रहने वाले सभी व्यक्तियों को सहोदर कहा है सर्वे हिन्दू सहोदरा न हिन्दू पवितोभवेत।

मम दीक्षा हिन्दू रक्षा मम मंत्र: समानता।।

समरसता का अर्थ ही है समाज को एकजुट करके रखना और यह कार्य किसी एक व्यक्ति के करने से और संस्था के करने से नहीं होगा। इसके लिए सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है। यह एक सामाजिक जरूरत है इस बुराई का खात्मा जागरूक समाज के द्वारा ही किया जा सकता है। जब तक हम अपनी सोच नहीं बदलेंगे तब तक परिवर्तन संभव नहीं है। यह परिवर्तन आज काफी हद तक देखने को मिल रहा है क्योंकि शिक्षा के बदलते परिवेश और डा. आंबेडकर द्वारा निर्मित संविधान के प्रावधानों ने हमारी सोच को भी बदला है कि भेदभाव ऊंच-नीच कुछ नहीं है। इसकी शुरुआत हमारे घर से ही होनी चाहिए फिर इससे आगे बढ़ाने का कार्य शिक्षक गण स्कूलों के द्वारा करेंगे। बच्चों के मन में जो संस्कार हम डालेंगे बच्चों का दृष्टिकोण उसी के अनुसार चलेगा। प्रेम डालेंगे तो प्रेम का स्वरूप बच्चे में उचित विकास के रूप में उभर कर आएगा।

- वीके अरोड़ा, डायरेक्टर स्माल वंडर पब्लिक स्कूल


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