रोहनात में 164 साल पुरानी विरासत तोड़ रही दम, अंग्रेजों के जुल्म सहने और लोहा लेने की दर्ज है दास्तां
रोहनात के जांबाज उस समय अंग्रेजों के जुल्म से नहीं डरे और उनका हर स्थिति में डटकर मुकाबला किया। 1857 की क्रांति के दौरान यहां के लोगों ने अपनी मातृ भूमि की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति दी थी। मगर इस जगह की अब देखभाल नहीं हो रही
बवानीखेड़ा [राजेश कादियान] गांव रोहनात में स्थित 164 वर्ष से अधिक समय से निर्मित प्राचीन विरासत संरक्षण के अभाव में दम तोड़ती जा रही है। यह विरासत ऐतिहासिक तो है कि साथ-साथ अंग्रेजों के जुलम की भी गवाह है। ध्यान रहे कि गांव रोहनात के जाबाजों ने 1857 की क्रांति के दौरान अंग्रेजों से जम कर लोहा लिया था। यहां के जांबाज उस समय अंग्रेजों के जुल्म से नहीं डरे और उनका हर स्थिति में डटकर मुकाबला किया। 1857 की क्रांति के दौरान यहां के लोगों ने अपनी मातृ भूमि की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति दी। अंग्रेजों ने भी ग्रामीणों पर काफी जुल्म ढहाए। गांव रोहनात में अंग्रेजों के जुल्मों का गवाह वर्षों पुराना एतिहासिक जोहड़, कुआं व बरगद का पेड़ आज भी अंग्रेजों के जुल्म की लोगों को याद दिला रहा है।
लेकिन संरक्षण के अभाव से अब ये प्राचीन विरासत धीरे-धीरे दम तोड़ने के कगार पर है। वर्षों पूरा बरगद भी रख-रखाव के अभाव में लगातार सूखता जा रहा है और कुआं भी धीरे-धीरे जर्जर अवस्था में पहुंच चुका है। जोहड़ भी धीरे-धीरे समिटता जा रहा है। यहां की ग्राम पंचायत ने करीब एक वर्ष पूर्व मुख्यमंत्री को पत्र लिख इस प्राचीन विरासत को पर्यटक स्थल में तबदील किए जाने की मांग की जा चुकी है। ग्राम पंचायत ने जोहड़ की मरम्मत के लिए रिटनिंग वाल व सौंदर्यकरण के लिए भी एस्टिमेट तैयार कर प्रशासन को भेजा हुआ है। इसी प्रकार कुओं की मरम्मत व बरगद के संरक्षण के लिए भी योजना तैयार की है।
करीब 90 लाख रुपये की लागत से एस्टिमेट तैयार किया हुआ है। लेकिन अभी तक इस विरासत के संरक्षण के लिए सरकार की और से कोई भी मंजूरी नहीं मिल पाई है। यहां के करीब 80 वर्षीय जागर सिंह, 78 वर्षीय ओमप्रकाश, 84 वर्षीय आत्माराम, 76 वर्षीय रिसाल सिंह आदि ने बताया कि यहां के जोहड़ के किनारे 1857 से पहले से ही कुआं व बरगद का पेड़ खड़ा हुआ है। उन्होंने बताया कि अंग्रेजों ने यहां के ग्रामीणों को उनका मुकाबला करने के विरोध में ग्रामीणों को इस बरगद के पेड़ पर फांसी के फंदे पर लटका दिया गया था। वहीं अंग्रेजों से अस्मिता बचाने के लिए यहां की महिलाएं बच्चों समेत इस कुएं में कूद गई थी।
उन्होंने बताया कि इसके अलावा अंग्रेजों ने यहां के ग्रामीणों को तोप से भी उड़ा दिया था। साथ-साथ हांसी लेजा कर कुछ ग्रामीणों को रोड रोलर से भी कुचल दिया था। जिससे आज हांसी की लाल सड़क के नाम से जाना जाता है। यहां के बुजुर्गों ने सरकार से मांग की है कि ये तीनों चीजें काफी ऐतिहासिक हैं। इसलिए सरकार को इनके संरक्षण के लिए आवश्यक कदम अवश्य ही उठाना चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ी भी गांव के गौरवमयी इतिहास व प्राचीन विरासत से रूबरू हो सकें।
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निवर्तमान सरपंच रीनू बूरा ने बताया कि इस प्राचीन विरासत के संरक्षण के लिए करीब 90 लाख रुपये की राशि का एस्टिमेट बनाकर मंजूरी के लिए प्रशासन व सरकार को भेजा जा चुका है। एक वर्ष से अधिक का समय हो चुका है। लेकिन अभी तक इस बारे में कोई भी कार्रवाई अमल में नहीं लाई गई है। उन्होंने बताया कि यहां के जोहड़ के किनारे स्थित कुआं व बरगद का पेड़ ऐतिहासिक धरोहर माना जाता है।