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रोटी-रोजी की चिंता में नहीं रुक रहे कामगारों के कदम, कहा- यहां रहे तो भूखे मर जाएंगे; पढ़िए लोगों की व्यथा

रोटी-रोजी की चिंता में कर्मभूमि छोड़कर जन्मभूमि की ओर कदम निरंतर बढ़ रहे हैं। जो रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। आइए जानते हैं जाने वाले मजदूर लोगों की क्‍या है व्यथा।

By Prateek KumarEdited By: Published: Thu, 28 May 2020 10:59 PM (IST)Updated: Fri, 29 May 2020 11:12 AM (IST)
रोटी-रोजी की चिंता में नहीं रुक रहे कामगारों के कदम, कहा- यहां रहे तो भूखे मर जाएंगे; पढ़िए लोगों की व्यथा
रोटी-रोजी की चिंता में नहीं रुक रहे कामगारों के कदम, कहा- यहां रहे तो भूखे मर जाएंगे; पढ़िए लोगों की व्यथा

हरियाणा, जेएनएन। कोरोनाजन्य परिस्थितियां बेहद विषम हैं। लॉकडाउन लगातार लंबा हो रहा है। दक्षिण हरियाणा एनसीआर के प्रवासी श्रमिकों का सब्र अब जवाब देने लगा है। रोटी-रोजी की चिंता में कर्मभूमि छोड़कर जन्मभूमि की ओर कदम निरंतर बढ़ रहे हैं। जो रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। इसकी वजह पूरी तरह से स्पष्ट है कि सरकार हो या विपक्ष, उद्योगपति हो या समाजसेवी संस्थाएं सब मिलकर भी प्रवासी कामगारों में भरोसा दिलाने में नाकाम रहे हैं कि आर्थिक सुधारों से स्थितियां कमोबेश पहले जैसी ही हो जाएंगी।

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निश्चिततौर पर एनसीआर में आर्थिक गतिविधियों की अच्छी शुरूआत हुई है, लेकिन उसको और भी तेजी से बढ़ाने जरूरत दिखती है। फैक्ट्रियों में कार्य के लिए जाने वाले श्रमिकों और कामगारों के साथ राज्यों की सीमाओं और नाकों पर होने वाली सख्ती उनका मनोबल तोड़ रही है।

गुरुग्राम, फरीदाबाद और सोनीपत के श्रमिकों का कहना है कि दो माह तक बैठकर खाने के चलते उनकी जमा पूंजी समाप्त हो गई। यहां किराये का घर है। मकान मालिक भी अब धीरे-धीरे किराया देने के लिए दबाव बनाने लगे हैं। अब यदि घर नहीं गए तो यहां भूख से मर जाएंगे। हालांकि घर में भी काम मिलेगा कि नहीं, इसकी चिंता उन्हें है, लेकिन वे यही कहते हैं वह अपना घर है। अपने लोग हैं, उन्हीं के बीच कुछ कर लिया जाएगा। कुछ मजदूरों ने कहा कि उनके पास थोड़ी-बहुत जमीन है, उस पर सब्जी आदि उगा लेंगे या दूसरे के खेतों में मजदूरी कर लेंगे। इतने पैसे तो नहीं, लेकिन कम से कम पेट भरने के लायक पैसे तो मिल ही जाएंगे। 

प्रवासी श्रमिकों का कहना है कि लॉकडाउन-4 के बाद स्थिति और भी खराब हो गई। घर में राशन नहीं बचा है। ऊपर से सरकारी सहायता भी ठीक तरह से नहीं मिली तो निकल पड़े गांव जाने के लिए साधन की तलाश में। बड़ी जद्दोजहद के बाद श्रमिक ट्रेन में रजिस्ट्रेशन हुआ तो शाम को चलने वाली ट्रेन के लिए दो बजे दोपहर में ही ताऊ देवीलाल स्टेडियम पहुंचे हैं। देखिए कब तक अपने घर पहुंचते हैं।

हमारा घर जाना ही ठीक रहेगा

यहां फास्ट फूड का स्टॉल लगाते थे। लोग बोल रहे हैं कि अब पहले की तरह काम नहीं कर सकते। अब लॉकडाउन में घर पर बैठकर ही बचाए हुए पैसों से घर चलाया है। अभी भी स्टॉल लगाने की इजाजत नहीं मिली है। अब लॉकडाउन लंबा चलेगा तो खाने की भी समस्या उत्पन्न हो जाएगी। इसलिए अपने घर ही जाना ठीक रहेगा।

-राजेश, अररिया, बिहार।

पैसे ही नहीं, काम भी खत्म..

कब तक इंतजार करें, पैसे भी खत्म हो गए हैं, मकान मालिक को किराया तो देना ही है। अपने पास नेपाल से कई लड़कों को भी लाकर यहीं पर रखा हुआ है। ऐसे मे उनका भी खर्चा-पानी देना पड़ रहा है, लॉकडाउन की शुरुआत से ही जाने की कोशिश कर रहे हैं। अब तो जमा पूंजी भी समाप्त हो गई है। खाने की भी दिक्कत हो रही है। काम कब शुरू होगा, कुछ भी स्पष्ट नहीं हो रहा है। इसलिए घर जाना मजबूरी है।

-शिवराम सारू, नेपाल

हमें मांगकर खाना गंवारा नहीं

कब तक किसी से मांगकर खाएं। सरकार की तरफ से भी कोई मदद नहीं आई है, ऐसे में घर पर जाना मजबूरी हो गई है। किरायेदार ने पैसा तो नहीं मांगा है, कहा है जब हो तब दे देना, लेकिन खाने के लिए भी तो पैसा चाहिए। काम-धंधा अब तक शुरू नहीं हो पाया है। दिहाड़ी नहीं मिल रही है। अपने घर पर क्या करेंगे, अभी तो पता नहीं, लेकिन यदि वहां महीने में पांच-सात दिन भी काम मिल जाएगा तो कम से कम पेट तो भर जाएगा। आगे की फिर सोचेंगे।

- मिथून, गांव अंबा, मध्य प्रदेश

गांव जाना ही बेहतर विकल्प

मैं, एक आइटी कंपनी में हेल्पर था। कंपनी प्रबंधन ने जून के बाद ही आने के लिए कहा। तब तक रहें कहां क्योंकि किराए के कमरे का दो माह का भुगतान मकान मालिक ने करा लिया। अब जमापूंजी भी नहीं है। ऐसे में गांव जाना ही बेहतर विकल्प है। चार दिन चक्कर काटने के बाद रेल का टिकट मिला है।

मुजाबिन हक, निवासी मालदा, पश्चिम बंगाल

हमें कोई भी सहायता नहीं मिली

काम-धंधा रहा नहीं। प्रशासन की ओर से भी कोई सहायता नहीं मिली। जिस मुहल्ले में रहती थी वहां के लोगों ने जरूरत मदद की। गांव जाने के लिए एक माह से प्रयास कर रही थी। एक सज्जन की मदद से रेल टिकट के लिए रजिस्ट्रेशन हुआ। किसी तरह गांव में रह लूंगी।

रोकेला, निवासी जिला मालदा, पश्चिम बंगाल

नौकरी से निकाल दिया, क्या करें?

लकड़पुर फाटक के नजदीक एक कंपनी में ठेके पर काम करता था। लॉकडाउन के बाद मार्च का वेतन देकर नौकरी से हटा दिया गया। जमापूंजी खर्च करके परिवार को पाला है। अब इतने पैसे नहीं है कि आगे परिवार का भरण-पोषण कर पाऊं। मकान का किराया देने का भी दबाव था। अब गांव में मजदूरी करके परिवार का पेट भरूंगा।

राम सनेही, मेवला महाराजपुर

ठेकेदार ने नहीं दिया वेतन

पाली क्रशर जोन में काम करता हूं। लॉकडाउन के बाद से ही काम नहीं है। ठेकेदार ने एक महीने वेतन भी नहीं दिया। बच्चों को पेट भरने के लिए सामाजिक संस्थाओं पर निर्भर रहना पड़ रहा है। किसी के आगे हाथ फैलाने से अच्छा है कि अपने गांव में खेती करके जीवन यापन कर लूंगा। गांव में बेहतर तरीके से परिवार की देखभाल कर पाऊंगा।

अनिल कुमार, पाली क्रशर जोन

श्रमिकों का भरोसा टूटने से  नहीं रुक रहा पलायन

शासन-प्रशासन को पता था कि लॉकडाउन लंबा चलेगा। आर्थिक गतिविधियां थम जाएंगी। ऐसी स्थिति में श्रमिकों को शुरू में ही उनके घर जाने देना चाहिए था। जब असुरक्षा की भावना चरम पर होती है चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो, फिर इंसान अपने परिवार के नजदीक जाना चाहता है। आज श्रमिकों के साथ यही स्थिति है। उन्हें विश्वास ही नहीं है कि व्यवस्था जल्द पटरी पर आएगी।

प्रो. रेणू सिंह, समाजशास्त्री


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