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कसौटी पर खर नहीं उतरा 'विश्वास'

कभी स्कूलों में तो कभी एनजीओ में दौड़ लगाने को मजबूर दिव्यांग विद्यार्थियों को अब राहत मिलेगी।

By JagranEdited By: Published: Sat, 17 Apr 2021 07:26 PM (IST)Updated: Sat, 17 Apr 2021 07:26 PM (IST)
कसौटी पर खर नहीं उतरा 'विश्वास'
कसौटी पर खर नहीं उतरा 'विश्वास'

कभी स्कूलों में तो कभी एनजीओ में दौड़ लगाने को मजबूर दिव्यांग विद्यार्थियों को अब राहत मिलेगी। कम से कम सेक्टर 46 स्थित विश्वास एनजीओ नहीं जाना होगा। हालात बदलने के बाद इन विद्यार्थियों को सरकारी स्कूलों में ही पढ़ाया जाएगा। सुनहरे वादे करने वाला यह एनजीओ 'विश्वास' की उन कसौटियों पर खरा नहीं उतर सका, जिसमें इसने सरकार और बच्चों को बेहतर सुविधाओं और संसाधनों के सब्जबाग दिखाए थे। यहा वर्षों से हालात इतने बदतर थे कि यहां न तो विद्यार्थी आते थे और न ही शिक्षकों को वह माहौल मिलता था। खंड के रिसोर्स सेंटर बनने के शुरुआती दौर, यानी वर्ष 2016 से ही विवादों के साये में रहे एनजीओ से और उम्मीद भी क्या की जा सकती थी? सरकारी विभाग का संचालन निजी एनजीओ के तहत। एक ऐसी व्यवस्था, जो अपने आप में सरकार पर बड़ा प्रश्नचिह्न हो, उसकी कार्यप्रणाली कैसे विवादों से अछूती रह सकती थी। ----------- फिर चली आंधियां हम एक बार फिर से उसी अवस्था में पहुंच गए हैं, जहां ठीक साल भर पहले थे। वही बीमारी, वही परेशानी, वही रुकावटें, वही बंदिशें और चहुंओर खौैफ का वही माहौल। परिस्थितियां पहले से भी तीक्ष्ण चुनौतियों के साथ सामने खड़ी हैं। हो भी क्यों न, लोग लापरवाह जो हो गए थे। मास्क त्याग दिए थे और दूरी रखना तो मीलों दूर की बात हो गई थी। शायद महामारी को भी यह रास नहीं आया कि उसे इतने हल्के में लिया जाए। घोर विपदाओं के दौर से सामान्यता की ओर बढ़ते हुए किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि महामारी एक बार फिर से फन उठा देगी, वह भी इतने विकराल रूप में। फिर बदले हालात संदेश दे रहे हैं कि घबराने नहीं, संभलने की जरूरत है। अभी भी वक्त है, आंधियों का रुख पहचानने, अपनी जड़ों को मजबूती से पकड़ परेशानियों का गुबार गुजर देने तक धैर्य रखने का।

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----------- कोरोना के ग्रहण से बदले मुहूर्त 'बेटी की शादी की तैयारियों में लगे हैं, समय भी नहीं है..।,' लेकिन शर्मा जी, शादी तो इस महीने के अंत में है न..?'। 'नहीं, अब इसी बृहस्पतिवार को है।' दो लोगों की बातों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस तरह से शादियों के सायों पर एक बार फिर से कोरोना का ग्रहण लग गया है। तिथियों की गणनाओं में उलझने के बजाय कोरोना के आंकड़ों पर ध्यान देते हुए नई तिथियां और मुहूर्त निकल रहे हैं। पंडित मदन मोहन की मानें तो उन्होंने जो तिथियां महीनों पहले जटिल गणनाओं से निकाली थीं, अब केवल एक ही 'ग्रह' से बचते हुए तत्काल निकाली जा रही हैं। रात की जगह शादियां दिन की हो गई हैं, ऐसे में लाइटों का खर्च दिन में फूलों में समायोजित हो गया है, मेहमानों की पन्नों लंबी सूची चंद पंक्तियों में सिमट गई है और मान्यताओं की जगह सतर्कताओं ने ले ली है। --------- नहीं बदला माहौल हर तरफ के माहौल में चिता व्याप्त है, लेकिन सुधरना फिर भी नहीं है। बाजार हो या अस्पताल, हर जगह लापरवाही। एक तरफ सब्जी मंडी है, जहां न चेहरों पर मास्क है और न ही माथे पर जरा सी शिकन। देखकर लगता है, मानो बीमारी का कोई अस्तित्व ही नहीं है। अब अस्पताल चलते हैं। दर्द से तड़पते मरीज, बदहवास स्वजन, इधर से उधर भागते कर्मचारी और अधिकारी। सिविल अस्पताल का दृश्य दिल दहला देता है, लेकिन हाल यहां भी वही है, सब्जी मंडी वाला। यहां के करुण नजारे को देख कहीं न कहीं क्रोध भी आता है। क्रोध लोगों की लापरवाही पर, उनकी अज्ञानता पर, कर्मचारियों की अनदेखी पर और माहौल में पसरी अफरातफरी पर। दरवाजे पर गार्ड है लेकिन वह भी कितनों को संभाले, किस-किस को रास्ता बताए। भीतर की तरफ बेतहाशा भागते लोगों को यह नहीं पता कि वे ठीक होने आए हैं या बीमारी लेने।


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