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बुरा न माने होली है..

होली की धूम में जब फिल्मों के नए-पुराने गीत बजने शुरू होते हैं तो कई बार नजरें जमीन में गढ़ने लगती हैं। उस पर नागिन डांस में माहिर मनमौजी जब उस मस्ती में साथियों के गालों का गलीचा बनाने को आतुर हो जाते हैं तो स्वभाविक रूप से उठता है यह सवाल कि आखिर ह

By Edited By: Published: Sat, 15 Mar 2014 12:26 PM (IST)Updated: Sat, 15 Mar 2014 12:26 PM (IST)
बुरा न माने होली है..

होली की धूम में जब फिल्मों के नए-पुराने गीत बजने शुरू होते हैं तो कई बार नजरें जमीन में गढ़ने लगती हैं। उस पर नागिन डांस में माहिर मनमौजी जब उस मस्ती में साथियों के गालों का गलीचा बनाने को आतुर हो जाते हैं तो स्वभाविक रूप से उठता है यह सवाल कि आखिर होली पर ठिठोली हो तो कितनी? चंडीगढ़ की नीलम महाजन कहती हैं, 'मेरा भी मन करता है कि मैं भी होली पर रंग खेलूं, लेकिन खेलने वालों को इस तरह होली खेलते देखा है कि दूर से ही सलाम कर लेती हूं। उन्हें न अपना होश होता है न दूसरों का।'

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होली के कुछ हुरियारे ऐसे भी हैं जो खुद को 'कन्हैया' समझ आस-पड़ोस की तमाम महिलाओं को गोपियां मानने लगते हैं। रंग में भंग तब पड़ता है जब गोपियों के हाथों होती है इन हुरियारों की पिटाई। कई बार तो हुल्लड़बाजी इतनी बढ़ जाती है कि उसका नशा थाने पहुंचने के बाद ही उतरता है। हुड़दंगबाजी के बाद अस्पतालों में भी बढ़ जाता है आंख, कान आदि के मरीजों का आना।

मस्ती हो तो फूल-चंदन सी

जम्मू-कश्मीर में आर्ट ऑफ लिविंग टीचर अरुणिमा सिन्हा कहती हैं, 'इन दिनों खुलेपन के नाम पर हमारे त्योहारों में बहुत ज्यादा फूहड़ता और अश्लीलता आ गई है। दोस्तों के साथ चुटकुले और टांग खिंचाई तो अच्छी लगती है, लेकिन इसमें भी मर्यादा भी होनी चाहिए। मस्ती के नाम पर अश्लील गाने और अश्लील डांस माहौल को खराब करते हैं। समझ सबको, सब कुछ आ रहा होता है। इसलिए ये न सोचें कि आप कुछ भी कह जाएंगे और हम उसे ठिठोली मान लेंगे। होली की आड़ में अभद्र व्यवहार बिल्कुल नहीं करना चाहिए। रिश्तों की मर्यादा में रहकर रंग लगाना चाहिए। हंसी-ठिठोली में भी फूहड़ता नहीं होनी चाहिए।'

नीलम आगे कहती हैं, 'भारतीय संस्कृति इतनी सुंदर है। वहां रिश्तों और त्योहारों की अपनी गरिमा है। उल्लास का अर्थ अभद्र हो जाना कतई नहीं है। इसलिए अपनी संस्कृति की मर्यादा को बचाकर रखना चाहिए। मेरा तो मानना है कि फूल, चंदन और प्यार की होली हो। जिसकी महक आपके व्यक्तित्व पर छाए, न कि आपके मन को दूषित करे। हमारे बैंगलोर आश्रम में तो फूल-चंदन की होली होती है, जैसे राधा-कृष्ण खेला करते थे।'

हमने बनाई अपनी टोली

गाजियाबाद निवासी रेणुका कहती हैं, 'पारिवारिक जिम्मेदारियों की वजह से मैंने अपनी मम्मी की सोसायटी में ही फ्लैट लिया है। अपने ज्यादातर पड़ोसियों को या तो अंकल कहती हूं या भईया। हम लोग अंकल या भईया सिर्फ कहते ही नहीं हैं, उन्हें मानते भी हैं और वे लोग भी मेरी बहन या बेटी की तरह ही इज्जत करते हैं। हमने महिलाओं की अपनी एक अलग टोली बनाई है। इस टोली में आंटियां, सहेलियां, भाभियां सब हैं। हम बकायदा ढोल वाले को बुलाते हैं, आपसी भागीदारी से छिटपुट खानपान का इंतजाम करते हैं और सोसायटी के पार्क में खूब जमकर होली खेलते हैं। अच्छी बात यह है कि उस दौरान कोई भी पुरुष बीच में नहीं आता, क्योंकि उन्हें पता है कि ये बहनों और बेटियों की टोली है।'

मौकापरस्त न बनें

जम्मू की टीवी और डोगरी फिल्म आर्टिस्ट कुसुम टिक्कू कहती हैं, 'ठिठोली तो हो, पर एक नफासत की हद तक.. अश्लीलता से परे। इसे एक त्योहार ही रहने दें। कुछ लोग इसे मौकापरस्ती में बदल देते हैं, जो बिल्कुल ठीक नहीं है। रंगों के इस त्योहार को गलत रंग में रंगने से क्या फायदा?'

बदल गया होली का ढंग

पेशे से अध्यापिका श्रुति सिंह कहती हैं, 'मैं मूलत: रोहतक से हूं। शादी के बाद जब मैं अपनी ससुराल पठानकोट आई तो मैंने देखा यहां खूब मस्ती में होली खेली जाती है, लेकिन ये मस्ती सिर्फ देखने भर की थी। कई बार तो औरतों की रोने वाली हालत हो जाती थी। उन्हें रंगने के लिए मोहल्ले भर के 'देवरों' ने गाढ़े पक्के रंग जुटाए होते थे। ग्रीस, अंडे जो मिल जाए.. होली क्या थी 'भाभियों' की शामत थी। यही हरकतें जब मेरे साथ की गई तो मैंने अपना रोहतक वाला 'कौलड़ा' निकाला..। मायके में हम सब सहेलियां मिलकर अपने दुपट्टों के कौलड़े (कोड़े) बनाया करते थे। वही कौलड़ा मैंने अपनी जेठानियों को बनाना सिखाया। शुरू में वे थोड़ा झिझकीं, उन्होंने मुझे भी ऐसा करने से मना किया, लेकिन फिर धीरे-धीरे सब फॉर्म में आ गई। नतीजा यह हुआ कि होली खेलने वाले तो कम हुए, लेकिन खेलने का अंदाज बहुत बदल गया।'

मस्ती न कर दे पस्त

इन दिनों कॉलेज, हॉस्टल और ऑफिस आदि में भी होली की पार्टियां खूब धूम-धड़ाके के साथ आयोजित होने लगी हैं। इन्हीं पार्टियों के हवाले से डॉ. अरुण कुमार कहते हैं, 'देखकर अच्छा लगता है कि हमारे त्योहारों की रंगत फिर से लौट रही है, लेकिन कई बार जोश-जोश में गड़बड़ भी हो जाती है। भांग, शराब आदि के कारण अक्सर लोग बीमार हो जाते हैं। कई बार बेमेल खानपान से फूड प्वॉयजनिंग तक का खतरा बन जाता हैं। वहीं रंगों में मौजूद केमिकल का सबसे ज्यादा नुकसान होता है आंख, कान और त्वचा पर। होली पर मस्ती तो अच्छी लगती है, लेकिन इस मस्ती के बीच भी सेहत को नजरंदाज नहीं करना चाहिए। जहां तक संभव हो किसी भी प्रकार के नशे से दूरी बनाकर रखनी चाहिए।'

बांटें सद्भाव के रंग

जानी मानी समाज सेविका राज भारती कहती हैं, 'त्योहारों पर अपने घर में तो सभी खुशी मनाते हैं, कितना अच्छा हो अगर यही खुशियां हम औरों के साथ भी बांटें। अपनी झोली के कुछ रंग, अपने हिस्से की कुछ मिठाइयां हमें उन लोगों में भी बांटनी चाहिए, जो इन्हें खुद खरीदने की क्षमता नहीं रखते।'

राज भारती के हर त्योहार की छटा कुछ अलग होती है। कभी उनके जम्मू में नगरोटा स्थित स्कूल में तो कभी उनके घर के प्रांगण में। हर साल गरीब बच्चे और महिलाएं इस खुशी में उनके साथ शरीक होते हैं अपनी-अपनी कला के नमूनों के साथ।

बना रहे संतुलन

'जिंदगी जब अनुशासन में हो तो उसका मजा ही अलग हो जाता है।' यह कहना है जेके मॉन्टेसरी स्कूल की प्रिंसिपल गीता दीक्षित का। वह कहती हैं, 'हर त्यौहार की अपनी गरिमा होती है। स्कूल सिर्फ ज्ञान की ही नहीं, संस्कारों और संस्कृति की भी पाठशाला होती है। यहीं से हम जिंदगी का रोमांच और अनुशासन दोनों सीखते हैं। हम उन्हें बताते हैं कि होली पर बड़ों के पैर छुए जाएं और गुलाल से तिलक किया जाए। होली सेलिब्रेशन में हम सिर्फ बच्चों को ही नहीं अध्यापिकाओं को भी शामिल करते हैं, ताकि उनके बीच सम्मान और आत्मीयता का संतुलन बना रहे।'

(योगिता यादव)


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