फिल्म रिव्यू: वजीर (3 स्टार)
बिजॉय नांबियार की 'वजीर' एक थ्रिलर फिल्म है। इसमें फिल्म के मुख्य किरदार अपनी बेटियों की आकस्मिक मौत से स्तब्ध और घायल हैं। वे हत्या के कारणों को समझने के बाद हत्यारे तक पहुंचना चाहते हैं। सबूत के अभाव में वे गैरकानूनी तरीका अपनाते हैं।
अजय ब्रह्मात्मज
प्रमुख कलाकार- अमिताभ बच्चन, फरहान अख्तर, नील नितिन मुकेश और अदिति राव हैदरी।
निर्देशक- बिजॉय नांबियार
स्टार- 3
अमिताभ बच्चन को पर्दे पर मुक्त भाव से अभिनय करते देखना अत्यंत सुखद अनुभव होता है। 'वजीर' देखते हुए यह अनुभव गाढ़ा होता है। निर्देशक बिजॉय नांबियार ने उन्हें भरपूर मौका दिया है। फिल्म देखते हुए ऐसा लगता है कि निर्देशक ने उन्हें टोकने या रोकने में संकोच किया है। अदाकारी की उनकी शोखियां अच्छी लगती हैं। भाषा पर पकड़ हो और शब्दों के अर्थ आप समझते हों तो अभिनय में ऐसी मुरकियां पैदा कर सकते हैं। फरहान अख्तर भी फिल्म में प्रभावशाली हैं। अगर हिंदी बोलने में वे भी सहज होते तो यह किरदार और निखर जाता। भाषा पर पकड़ और अभिनय में उसके इस्तेमाल के लिए इसी फिल्म में मानव कौल को भी देख सकते हैं।
अभी हम तकनीक और बाकी प्रभावों पर इतना गौर करते हैं कि सिनेमा की मूलभूत जरूरत भाषा को नजरअंदाज कर देते हैं। इन दिनों हर एक्टर किरदारों के बाह्य रूप पर ही अधिक मेहनत करते हैं। अभिनय के भाव और अर्थ को वे लगातार हाशिए पर डाल रहे हैं। समस्या यह है कि निर्देशक भी एक हद के बाद आग्रह छोड़ देते हैं। कुछ निर्देशक हिंदी में तंग हैं तो वे स्वयं गलतियों और चूकों को समझ नहीं पाते।
बहरहाल, बिजॉय नांबियार की 'वजीर' एक थ्रिलर फिल्म है। इसमें फिल्म के मुख्य किरदार अपनी बेटियों की आकस्मिक मौत से स्तब्ध और घायल हैं। वे हत्या के कारणों को समझने के बाद हत्यारे तक पहुंचना चाहते हैं। सबूत के अभाव में वे गैरकानूनी तरीका अपनाते हैं। देखें तो ओंकारनाथ धर (अमिताभ बच्चअन) एक बिसात बिछाते हैं। व्यूह रचते हैं और दानिश अली (फरहान अख्तर) को आक्रमण के लिए प्रेरित करते हैं। विधु विनोद चोपड़ा और अभिजात जोशी ने हट के स्क्रिप्ट लिखी है। यों इस फिल्म के कई दृश्यों की संरचना में विधु विनोद चोपड़ा की 'एकलव्य' की झलक मिलती है। यह स्वभाविक है। किरदारों के अतर्संबंध और व्यक्त-अव्यक्त अभिप्रायों से फिल्म आगे बढ़ती है।
फिल्म के लेखकों की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने किरदारों को गढ़ने में समय नहीं गंवाया है। फिल्म चंद मिनटों में ही मूल कहानी पर आ जाती है। और फिर शतरंज के खेल की तरह ही मोहरों(किरदारों) की चाल जिज्ञासा बढ़ाती रहती है। इस फिल्म की खूबी है कि घटनाओं और दृश्यों में चुस्ती है। फिल्म देखते समय अगर मोबाइल की बीप पर ध्यान गया तो कुछ छूट भी सकता है। लेखक और निर्देशक ने मिल कर एक बेहतरीन और चुस्त फिल्म रची है। खास कर फिल्म का थ्रिलर तत्व रोमांचक है।
'वजीर' में वजीर नामक चरित्र की संक्षिप्त मौजूदगी फिल्म को नया आयाम दे देती है। इस छोटी भूमिका में भी नील नितिन मुकेश प्रभावित करते हैं। मानव कौल ने यजाद कुरैशी की भूमिका में उसके छल को जिस निश्छल रूप में पेश किया है, वह एक कलाकार के चरित्र की समझ और उसकी पेशगी का बखान करती है। लेखकों ने इस जटिल किरदार की मोहक रचना की है।
विधु विनोद चोपड़ा की स्वयं की फिल्में हों या उनके प्रोडक्शन की अन्य फिल्में... गौर करें तो पाएंगे कि उनमें महिला किरदारों पर अधिक ध्यान नहीं रहता। एक 'परिणीता' अपवाद है। 'वजीर' में भी रुहाना(अदिति राव हैदरी) के हिस्से कुछ खास नहीं आया है। हां, उनकी मौजूदगी से दो-चार सीन बन गए हैं, जिनके बहाने अमिताभ बच्चन और फरहान अख्तर को अपने किरदारों के अन्य पक्ष भी दिखाने का मौका मिल गया है।
अवधि- 100 मिनट
abrahmatmaj@mbi.jagran.com