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फिल्म रिव्यू: सत्याग्रह (3.5 स्टार)

इस फिल्म के शीर्षक गीत में स्वर और ध्वनि के मेल से उच्चारित 'सत्याग्रह' का प्रभाव फिल्म के चित्रण में भी उतर जाता तो यह 2013 की उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक फिल्म हो जाती।

By Edited By: Published: Fri, 30 Aug 2013 01:13 PM (IST)Updated: Fri, 30 Aug 2013 01:32 PM (IST)
फिल्म रिव्यू: सत्याग्रह (3.5 स्टार)

अजय ब्रह्मात्मज, मुंबई।

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प्रमुख कलाकार: अजय देवगन, अमिताभ बच्चन, करीना कपूर, अर्जुन रामपाल, मनोज वापजेयी और अमृता राव।

निर्देशक: प्रकाश झा।

संगीत: सलीम-सुलेमान, इंडियन ऑशन, आदेश श्रीवास्तव और मीत ब्रदर्स अनजान।

स्टार: 3.5

इस फिल्म के शीर्षक गीत में स्वर और ध्वनि के मेल से उच्चारित 'सत्याग्रह' का प्रभाव फिल्म के चित्रण में भी उतर जाता तो यह 2013 की उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक फिल्म हो जाती। प्रकाश झा की फिल्मों में सामाजिक संदर्भ दूसरे फिल्मकारों से बेहतर और सटीक होता है। इस बार उन्होंने भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया है। प्रशासन के भ्रष्टाचार के खिलाफ द्वारिका आनंद की मुहिम इस फिल्म के धुरी है। बाकी किरदार इसी धुरी से परिचालित होते हैं।

देखिए सत्याग्रह का ट्रेलर

द्वारिका आनंद ईमानदार व्यक्ति हैं। अध्यापन से सेवानिवृत हो चुके द्वारिका आनंद का बेटा भी ईमानदार इंजीनियर है। बेटे का दोस्त मानव देश में आई आर्थिक उदारता के बाद का उद्यमी है। अपने बिजनेस के विस्तार के लिए वह कोई भी तरकीब अपना सकता है। द्वारिका और मानव के बीच झड़प भी होती है। फिल्म की कहानी द्वारिका आनंद के बेटे की मृत्यु से आरंभ होती है। उनकी मृत्यु पर राज्य के गृहमंत्री द्वारा 25 लाख रुपए के मुआवजे की रकम हासिल करने में हुई दिक्कतों से द्वारिका प्रशासन को थप्पड़ मारते हैं। इस अपराध में उन्हें हिरासत में ले लिया जाता है। मानव सोशल मीडिया नेटवर्क के जरिए चालाकी से उनकी मुक्ति के लिए एक अभियान आरंभ करता है। उसमें स्थानीय महत्वाकांक्षी नेता अर्जुन और टीवी पत्रकार यास्मीन अहमद शामिल हो जाते हैं। इस अभियान के निशाने पर गृह मंत्री बलराम सिंह, स्थानीय प्रशासन और सरकार हैं।

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लेखक-निर्देशक ने ध्यानपूर्वक भ्रष्टाचार के मुद्दे को देश की सामाजिक जिंदगी से जोड़ा है। अन्ना हजारे के आंदोलन और अरविंद केजरीवाल के आम आदमी अभियान से भ्रष्टाचार भारतीयों के बीच विचार-विमर्श का प्रमुख विषय बना हुआ है। इसी विषय को प्रकाश झा ने द्वारिका आनंद के नायकत्व में पेश किया है। रिलीज होने तक यह चर्चा रही कि क्या द्वारिका आनंद का किरदार अन्ना हजारे से प्रभावित है। फिल्म के प्रतीकात्मक दृश्यों पर गौर करें तो यह मुख्य रूप से गांधी की छवि से प्रभावित है। उनके विचारों की छाया भर ही है द्वारिका आनंद की करनी में। उद्विग्नता में द्वारिका आनंद का हे राम कहना, सुमित्रा और यास्मीन के कंधों का सहारा लेकर खड़ा होना (महात्मा गांधी अंतिम दिनों में मनु और मीरा के कंधों पर हाथ दिए चलते थे), क्लाइमेक्स में छाती पर लगी तीन गोलियां .. इनके अलावा आमरण अनशन, अहिंसा पर बल और लेटने का अंदाज। गांधी के अलावा जयप्रकाश नारायण और अन्ना हजारे की भी प्रतिछवियां हैं द्वारिका आनंद में। दरअसल, जब भी कोई बुजुर्ग राजनीतिक प्रतिरोध में खड़ा होगा तो आचरण और विचार में गांधी एवं जयप्रकाश नारायण के करीब लगेगा।

'सत्याग्रह' में द्वारिका आनंद और मानव के बीच के रिश्ते का द्वंद्व भी है। द्वारिका के प्रभाव में मानव के विचारों में परिवर्तन आता है। वह 6 हजार करोड़ से ज्यादा की संपत्ति का आनन-फानन में बंटवारा कर देता है। वैसे देश की आजादी के बाद से ऐसा कोई उद्यमी वास्तविक जिंदगी में दिखाई नहीं पड़ा है। लेखक-निर्देशक की आदर्शवादी कल्पना फिल्म की सोच में सहायक होती है। यास्मीन अहमद (करीना कपूर) के किरदार में भी ऐसी लिबर्टी ली गई है। अंबिकापुर में वह अकेली टीवी पत्रकार हैं और आंदोलन में शामिल होने के साथ वह फैसले भी लेने लगती है, जबकि अंत तक वह नौकरी में हैं। अर्जुन के किरदार पर मेहनत नहीं की गई है। गुंडागर्दी की वजह से कालेज से निष्कासित छात्र पर बाद में नेता बनना और द्वारिका के समर्थन में खड़ा होने के बीच भी कुछ हुआ होगा। फिल्म में भारत मुक्ति दल के रूप में सांप्रदायिक राजनीतिक पार्टी का चित्रण.. फिल्म के राजनीतिक चित्रण में वैचारिक घालमेल है। यह सब फिल्म की सुविधा के लिए किया गया है। पटकथा की रवानी में इन पर आम दर्शक का ज्यादा ध्यान नहीं जाता। 'सत्याग्रह' में राजनीतिक स्पष्टता नहीं है।

निगेटिव किरदार के रूप में बलराम सिंह की कल्पना सच के करीब है। बलराम सिंह की राजनीतिक धौंस में किसी बाहुबली के मानस का सही चित्रण हुआ है। वह अपनी चालाकियों और कतरब्योंत में आज का अवसरवादी राजनीतिज्ञ दिखता है। मनोज बाजपेयी ने उसे सही तरीके से पर्दे पर उतारा है। मनोज बाजपेयी फिल्म में कहीं भी लाउड नहीं होते। वे कॉमिकल भी नहीं होते। फिर भी बलराम सिंह की मंशा और नकारात्मकता को पर्दे पर उतारने में सफल होते हैं। वे इस दौर में सघन प्रतिभा के धनी अभिनेता हैं। अजय देवगन के क्लोज शॉट में उम्र झांकने लगी है। इसके बावजूद उन्होंने मानव के स्वभाव और दुविधा को संयमित और भावानुकूल तरीके से पेश किया है। अर्जुन रामपाल और करीना कपूर निराश करते हैं। छोटी भूमिका में अमृता राव प्रभावित करती हैं, जबकि पर्दे पर और निर्वाह में वह अनेक किरदारों से छिप जाती हैं।

प्रकाश झा की 'सत्याग्रह' उनकी पिछली फिल्मों की ही कड़ी में हैं। पिछली फिल्मों की ही तरह वे इस बार भी समाज में व्याप्त समस्या को कुछ चरित्रों के माध्यम से चित्रित करते हैं। कहानी परिवार से शुरू होती है और फिर समाज में शामिल हो जाती है। इस प्रक्रिया में उसका राजनीतिक पक्ष भी उजागर होता है। आज के कमाऊ सिनेमा के प्रचलित फॉर्मूलों से अलग जाकर एक सार्थक और उद्देश्यपूर्ण फिल्म बनाने की इस कोशिश में शामिल सभी प्रतिभाओं का प्रयास प्रशंसनीय है।

अवधि-140 मिनट

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