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ओझल समाज का लहूलुहान सच

कहानी अब जाकर पूरी हुई। दुश्मनों के वंशजों ने नए और निजी स्वार्थो की वजह से हाथ मिला लिए। भरपूर बदला लिया गया। खून की होली खेली गई। लहूलुहान रामाधीर सिंह को देख कर फैजल खान की प्रतिहिंसा की मात्रा का पता चला।

By Edited By: Published: Wed, 08 Aug 2012 03:22 PM (IST)Updated: Wed, 08 Aug 2012 03:22 PM (IST)

कहानी अब जाकर पूरी हुई। दुश्मनों के वंशजों ने नए और निजी स्वार्थो की वजह से हाथ मिला लिए। भरपूर बदला लिया गया। खून की होली खेली गई। लहूलुहान रामाधीर सिंह को देख कर फैजल खान की प्रतिहिंसा की मात्रा का पता चला। नृशंस हत्यारे में तब्दील हो चुका फैजल खान अपने जीवन के दंश से फिर भी नहीं निकल पाया। उसने बदले की राह चुनी नहीं थी। वह दबाव में आ गया था,लेकिन हुआ क्या? खुद ही उसने अपना अंत तय कर लिया। गैंग्स ऑफ वासेपुर 2 में कोई किसी का सगा नहीं है। सभी पाला बदलते हैं। 1985 से 2009 तक की इस लोमहर्षक कहानी से हिंदी फिल्मों के दर्शक वंचित रहे हैं। गौर से देखिए। यह भी एक हिंदुस्तान है। यहां भी जीवन है और जीवन के तमाम छल-प्रपंच हैं। जीवन की इस सच्चाई से उबकाई या घिन आए तो मान लीजिए कि हिंदी सिनेमा ने आप को संवेदनशून्य कर दिया है। सच देखने की मौलिकता भ्रष्ट कर दी है।

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गैंग्स ऑफ वासेपुर 2 सही मायने में सिक्वल है। इन दिनों हर फिल्म के 2और 3 की झड़ी लगी हुई है,लेकिन उनमें से अधिकांश सिक्वल नहीं हैं। सभी पहली फिल्म की सफलता का ब्रांड इस्तेमाल कर रहे हैं। इसके पहले राम गोपाल वर्मा ने अवश्य रक्तचरित्र दो हिस्सों में सिक्वल के तौर पर बनाई थी। गैंग्स ऑफ वासेपुर 2 की कहानी गैंग्स ऑफ वासेपुर के समाप्त होने से शुरू होती है। पिता की मौत पर दानिश खान का अनियंत्रित गुस्सा विनीत सिंह ने पूरी ऊर्जा के साथ पर्दे पर उतारा है। इस किरदार का फिल्म में ज्यादा स्पेस नहीं मिला है,लेकिन अपनी संक्षिप्त मौजूदगी के बावजूद वह हमें हिला देता है। बदले की इन घटनाओं से विरक्त फैजल खान चिलम के धुएं में मस्त रहता है। बड़े भाई दानिश की फब्तियों से भी उसे फर्क नहीं पड़ता,लेकिन मां के उलाहने को वह बर्दाश्त नहीं कर पाता। कसम खाता है कि दादा का,बाप का,भाई का ़ ़ ़ सबका बदला लेगा। इस संवाद के बाद हम फैजल खान के व्यक्तित्व में आए परिव‌र्त्तन को देखते हैं। हालांकि मोहसिना के प्रति उसकी मोहब्बत का गुलाबी रंग और अमिताभ बच्चन की फिल्मों का असर भी अंत तक बरकरार रहता है,लेकिन नए तेवर में वह धीरे-धीरे क्रूर और नृशंस होता चला जाता है। रोमांटिक,डिस्टर्ब और फ्रस्ट्रेटेड फैजल खान का बदला जघन्यतम है। फजलू के गला रेतने से लेकर रामाधीर सिंह की हत्या तक हम फैजल खान को ऐसे किरदार के रूप में देखते हैं,जो हिंदी फिल्मों के पर्दे पर पहली बार आया है।

हिंदी सिनेमा के प्रभाव और पारिवारिक-सामाजिक विसंगतियों के दबाव में फैजल खान का सृजन हुआ है। लेखक और निर्देशक ने अवश्य ही किसी वास्तविक किरदार पर उसे आधारित किया होगा,लेकिन उसके मिजाज को अपनी फिल्म के अनुकूल गढ़ा है। फैजल खान के किरदार में हम नवाजुद्दीन सिद्दिकी को देखते हैं। यह अनुराग कश्यप की सृजनात्मक हिम्मत ही है कि उन्होंने नवाजुद्दीन सिद्दिकी जैसे एक्टर को केंद्रीय किरदार निभाने की जिम्मेदारी दी। लुक और प्रेजेंस में वे पारंपरिक हीरो या प्रमुख किरदार की धारणा तोड़ते हैं। सिर्फ अपनी अभिनय प्रतिभा के बल पर नवाजुद्दीन सिद्दिकी ने इस जिम्मेदारी को सफलता से निभाया है। वे फिल्म के हर फ्रेम में प्रभावित करते हैं। निर्देशक का भरोसा भी उन दृश्यों में जाहिर होता है। और केवल फैजल खान ही नहीं,परपेंडिकुलर,डेफिनिट,टेंजेंट,गुड्डू,फजलू,गोपाल सिंह,शमशाद आदि के किरदारों के लिए भी नए एक्टरों में अनुराग कश्यप के विश्वास और साहस के दर्शन होते हैं। यह फिल्म कैरेक्टर,कैरेक्टराइजेशन और कास्टिंग के लिए भी भविष्य में पाठ के रूप में रेफर की जाएगी। अनुराग कश्यप और मुकेश छाबड़ा की टीम ने बेहतरीन काम किया है।

हालांकि फिल्म के अच्छे या बुरे होने का सारा क्रेडिट फिल्म के निर्देशक को मिलता है। इस फिल्म के पहले हिस्से के लिए अनुराग कश्यप की तारीफ हो चुकी है। दूसरे हिस्से के लिए भी उन्हें तारीफ मिलेगी। उनकी इस तारीफ के हिस्सेदार उनकी टीम भी है। कास्टिंग डायरेक्टर मुकेश छाबड़ा का उल्लेख हो चुका है। कॉस्ट्यूम डिजायनर सुबोध श्रीवास्तव दशकों में चल रही फिल्म के किरदारों को पीरियड के हिसाब से कपड़े पहनाए हैं। उन्होंने किरदारों के मिजाज का भी ध्यान रखा है। कैमरामैन राजीव रवि और अनुराग कश्यप की युगलबंदी देखने लायक है। भीड़ भरे बाजार के चेज सीन हों या दो व्यक्तियों के संवाद ़ ़ ़कई बार पूरी फ्रेम में अकेला किरदार है। राजीव रवि ने जरूरत के मुताबिक उन्हें कैमरे में कैद किया है। दो भिन्न दूश्यों के बीच में पर्दे को काला कर देने की युक्ति से फिल्म के प्रभाव में खलल नहीं पड़ता। देसी एक्शन और हिंसा की इस फिल्म चाकू,सुआ के उपयोग से लेकर गोलियों की बौछार तक में एक्शन डायरेक्टर के सुसंगत निर्देशन की झलक मिलती है। उन्होंने हिंसात्मक एक्शन को रचने में वास्तविकता का खयाल रखा है। चेज दृश्यों में एक्शन की टाइमिंग सहज नहीं रही होगी,क्योंकि उन्हें वास्तविक ट्रैफिक और बाजार की भीड़ के बीच शूट किया गया है। फिल्म की स्क्रिप्ट के लिए अनुराग कश्यप समेत सचिन लाडिया,अखिलेश और जीशान कादरी का उल्लेख करना ही होगा। लेखकों की टीम ने दूश्य रचने से लेकर संवाद गढ़ने तक में फिल्म के मर्म को ध्यान में रखा है। कुछ दृश्यों में अवश्य लेखक रमते नजर आते हैं।

फिल्म के गीत-संगीत का अंतिम प्रभाव में बड़ा योगदान है। स्नेहा खानवलकर ने पियूष मिश्रा और वरूण ग्रोवर की गीतों को लोक धुनों से सजाया है। इस फिल्म के तार बिजली से और काला रे गीतों में शब्दों के चयन पर गौर करें तो अर्थ की परतें खुलती हैं। तार बिजली से पतले हुए पिया और कोई नहीं इस इलाके की जनता है। गीतकार ने शादी के गीत के बहाने पिया की इस स्थित के लिए कहीं न कहीं बापू,गुलाबी चाचा,बाबूजी,लोकनायक और जननायक को दोषी ठहराते हुए उलाहना दिया है। दर्शक इन नामों से संबंधित नेताओं को जरा याद कर लें। वास्तव में यह शोकगीत है। इसी प्रकार काला रे गीत में फिल्म के नायक फैजल खान के चरित्र और द्वंद्व को गीतकार ने काला शब्द की विभिन्न छटाओं और क्रियाओं के इस्तेमाल से सटीक बना दिया है। पियूष मिश्रा की आवाज में आबरू गीत दृश्य के भाव को सही ढंग से पेश करता है। यशपाल शर्मा के गाए गीत और बैंड फिल्म के दृश्यों को मार्मिक बनाते हैं। गीत और पाश्‌र्र्व संगीत के सही उपयोग से फिल्म अधिक प्रभावशाली और अर्थपूर्ण हो गई है।

अनुराग कश्यप की यह फिल्म भी पहले हिस्से की तरह झकझोरती है। ऊपरी तौर पर यह गालियों और गोलियों से लबरेज लगती है,लेकिन निर्देशक ने उनका इस्तेमाल आयटम की तरह नहीं बल्कि टूल की तरह किया है। दर्शकों के दृश्य पटल से ओझल समाज और किरदारों को फिल्म में पेश कर अनुराग कश्यप ने उल्लेखनीय काम किया है। यह फिल्म आजादी के बाद एक इलाके में आयी तब्दीलियों को पूरी कठोरता के साथ पर्दे पर उतारती है। निर्देशक ने दर्शकों के असहज या बेचैन होने की परवाह नहीं की है। उन्होंने सही नब्ज पर उंगली रखी है।

**** चार स्टार

-अजय ब्रह्मात्मज

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