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फिल्म रिव्यू: दो युगों की प्रेम कहानी 'फिल्लौरी'

पुरानी प्रेम कथा को निर्देशक ने अपनी तकनीकी टीम की मदद से सही रंग और ढंग में पेश करते हैं। अभी के समय के चित्रण में वही कौशल नहीं दिखा है। फिल्म अटकती और धीमी होती है।

By मनोज वशिष्ठEdited By: Published: Fri, 24 Mar 2017 04:04 PM (IST)Updated: Fri, 24 Mar 2017 04:22 PM (IST)
फिल्म रिव्यू: दो युगों की प्रेम कहानी 'फिल्लौरी'
फिल्म रिव्यू: दो युगों की प्रेम कहानी 'फिल्लौरी'

-अजय ब्रह्मात्मज

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कलाकार: अनुष्का शर्मा, दिलजीत दोसांझ, सूरज शर्मा आदि।

निर्देशक: अंशय लाल

निर्माता: अनुष्का शर्मा और कर्णेश शर्मा

स्टार: *** (तीन स्टार) 

भाई-बहन कर्णेश शर्मा और अनुष्का शर्मा की कंपनी ‘क्लीन स्ले‍ट’ नई और अलग किस्म की कोशिश में इस बार ‘फिल्लौरी’ लेकर आई है। फिल्लौरी की लेखक अन्विता दत्त हैं। निर्देशन की बागडोर अंशय लाल ने संभाली है। दो युगों की दो दुनिया की इस फिल्म में दो प्रेम कहानियां चलती हैं। पिछले युग की प्रेम कहानी की प्रेमिका शशि इस युग में भूतनी बन चुकी है और संयोग से कनन और अनु के बीच टपक पड़ती है। अन्विता दत्त और अंशय लाल ने दो युगों की इस फंतासी को वीएफएक्स के जरिए पर्दे पर उतारा है। फिल्म में तर्क और विचार को परे कर दें तो यह रोचक फिल्म है। कनन तीन सालों के बाद कनाडा से लौटा है। उसकी शादी बचपन की दोस्त अनु से होने वाली है। बेमन से शादी के लिए तैयार हुए कनन के बारे में पता चलता है कि वह मांगलिक है।

मांगलिक प्रभाव से निकलने के लिए जरूरी है कि पहले किसी पेड़ से उसकी शादी की जाए। आधुनिक सोच-विचार के कनन को यह बात अजीब लगती है। आरंभिक आनाकानी के बाद परिवार के दबाव में वह इसके लिए भी राजी हो जाता है। पेड़ से शादी होने पर उस पेड़ की भूतनी (शशि) उसके घर में आ जाती है। अब वह लौट भी नहीं सकती, क्योंकि अनुष्छान के मुताबिक पेड़ कट चुका है। समस्या यह है कि भूतनी केवल कनन को दिखाई पड़ती है। परिवार के सदस्य उसकी बात समझने के लिए तैयार ही नहीं हैं। कहानी बढ़ने के क्रम में अनु भी भूतनी के अस्तित्व से परिचित हो जाती है। फिर दोनों मिल कर शशि की मदद करते हें। शशि कविता करती है। उसे अपने ही गांव के रूप की आवाज अच्छी लगती है। वह चाहती है कि वह अपनी आवाज का सही इस्तेमाल करे। रूप बिगड़क्ल किस्म का नौजवान है। शशि की संगत में उसमें बदलाव आता है।

संयोग कुछ ऐसा बनता है कि दोनों की प्रेम कहानी परवान नहीं चढ़ पाती। अपनी अतृप्ति इच्छाओं के कारण वह भूतनी बन जाती है। ऐसी कहानियों को फंतासी अंदाज में ही पेश करना पड़ता है। लोककथाओं में भत-भूतनी के किरदार मिलते हैं। आज की प्रेम कहानी में लोककथा के तत्व जोड़ कर दिखाना कुछ समय के लिए रोचक लगता है। इस फिल्मत में भी कनन से भूतनी के मिलने की कहानी हंसाती है। आगे बढ़ने पर शशि की मदद में कनन की कोशिश देर की कौड़ी लगती है। 98 साल पहले हुए किसी हादसे से कहानी इस रूप में जोड़ना पल्ले नहीं पड़ता। यही कारण है कि फिल्म अपना असर खो देती है। कलाकारों में अनुष्का शर्मा और दिलजीत दोसांझ पर्दे पर अच्छे लगते हैं। कनन के रूप में सूरज शर्मा किरदार की उलझनों को अच्छी तरह व्यक्त करते हैं।

अनु के किरदार में महरीन पीरजादा कौर ज्या‍दा प्रभावित नहीं करतीं। पंजाब में कनन और अनु के परिवार के सदस्यों में दादी पर ही नजर अटकती है। उनके हाथों में सुबह से ही ग्लास रहता है। वह अपनी बातों से भी चौंकाती हैं। पुरानी प्रेम कथा को निर्देशक ने अपनी तकनीकी टीम की मदद से सही रंग और ढंग में पेश करते हैं। अभी के समय के चित्रण में वही कौशल नहीं दिखा है। फिल्म अटकती और धीमी होती है। फिल्म का संगीत पंजाब की खूश्बू से लबरेज है। दिलजीत दोसांझ ने उनके चित्रांकन में जान डाल दी है। गीत-संगीत मधुर हैं। दो युगों की इस प्रेम कहानी में प्रेमियों के लक्षण, व्यवहार और अपेक्षाओं के तुलनात्मक अध्ययन से हम पिछले 100 सालों में स्त्री-पुरूष संबंधों में आए बदलाव को पढ़ सकते हैं।

अवधि: 133 मिनट 


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