INTERVIEW : 'बर्फ' में छिपी कश्मीर की राजनीति-सौरभ शुक्ला
कल्लू मामा, जज त्रिपाठी यानी सौरभ शुक्ला। फिल्मी दुनिया के साथ-साथ थियेटर से भी खास जुड़ाव। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) जिसकी वैश्विक पटल पर अपनी एक विशेष पहचान है, सौरभ दिल्ली आते हैं तो यहां मत्था टेकना नहीं भूलते।
नई दिल्ली। कल्लू मामा, जज त्रिपाठी यानी सौरभ शुक्ला। फिल्मी दुनिया के साथ-साथ थियेटर से भी खास जुड़ाव। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) जिसकी वैश्विक पटल पर अपनी एक विशेष पहचान है, सौरभ दिल्ली आते हैं तो यहां मत्था टेकना नहीं भूलते। बतौर निदेशक सौरभ ने हाल ही में एक नाटक किया है 'बर्फ'। भारंगम कार्यक्रम में इस नाटक को खासी सफलता मिली, जिससे शुक्ला बहुत उत्साहित हैं, जल्द ही दोबारा इसके शो होने वाले हैं। सौरभ शुक्ला की फिल्मी और थियेटर की जिंदगी के बारे में हमारी वरिष्ठ उप संपादक मनु त्यागी ने उनसे बातचीत की। पेश है उसके प्रमुख अंश :
-आपका बचपन दिल्ली में बीता, तब और अब की दिल्ली में क्या बदलाव देखते हैं?
अब तो दिल्ली की आबोहवा एकदम बदल गई है। लेकिन जो नहीं बदला है वह है हमारा नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा। जब भी दिल्ली आता हूं तो जैसे लोग मंदिर में मत्था टेकने जाते हैं वैसे ही मैं एनएसडी में मत्था टेकने जाता हूं। अपने स्कूल-कॉलेज के दोस्तों से भी जरूर मिलता हूं।
-थियेटर से शुरुआत की उसके बाद फिल्मों में और अब फिर थियेटर की ओर?
ठहाका लगाते हुए, अब पैसे इकट्ठे हो गए हैं। दरअसल थियेटर करो या फिल्म दोनों को ही पूरा समय चाहिए। एक वक्त में एक ही हो पाता है। दूसरी बात अब इतना पैसा है कि यदि कुछ दिन बॉलीवुड से दूर भी रहूं तो चलेगा। उस वक्त थियेटर कर लेता हूं। हालांकि थियेटर से मेरा हमेशा ही जुड़ाव रहा है।
-क्या खासियत है एनएसडी की?
एनएसडी पूरी तरह से थियेटर को बढ़ावा दे रहा है और इसके लिए वह किसी कमर्शियल मार्केट का मोहताज नहीं है। यहां से मूलरूप से जुड़े सभी कलाकार हर बार कुछ नया करने का प्रयास करते हैं। जबसे वामन केंद्रे बतौर निदेशक हुए हैं तो और भी बदलाव हुए हैं। मसलन थियेटर का सबसे बड़ा आयोजन भारंगम पहले सिर्फ दिल्ली में ही होता था। लेकिन इस बार दिल्ली के अलावा पांच और शहरों में पांच-पांच दिन का आयोजन हुआ।
-लोग यहां आते हैं सीखते हैं और चले जाते हैं, इसे और आगे क्यों नहीं बढ़ाते?
देखिए, एनएसडी मंच कुछ लोगों को ही आर्थिक सहायता यानी नौकरी-स्कॉलरशिप दे सकता है। क्योंकि यह कमर्शियल लेवल तक नहीं पहुंचा है। यही इसकी खासियत भी है।
-हिंदी नाटकों के लिए इतनी चुनौतियां क्यों?
अब तक अमूमन नाटकों में अंग्रेजी स्क्रिप्ट को ङ्क्षहदी संवाद व अभिनय के साथ प्रस्तुत किया जाता था। लेकिन आपको बताना चाहूंगा बर्फ जैसे नाटक में दो प्रयोग किए हैं एक तो यह थ्रिलर है दूसरी बात ङ्क्षहदी में है, क्योंकि अभी तक थियेटर में ङ्क्षहदी थ्रिलर नाटक नहीं हुआ।
-थियेटर सिनेमा जैसा पॉपुलर नहीं है तो उसका खर्चा कैसे निकलता है?
मुस्कराते हुए, असल में जो लोग थियेटर से मूलत: जुड़े हैं इसमें रमे हैं। उन्हें फिर खर्चे की उतनी फिक्र नहीं रहती। जैसे अपने ही अनुभव से बताऊं 22 से 27 साल की उम्र तक यानी पांच साल मैंने एक पैसा नहीं कमाया कुछ नहीं किया था सिर्फ और सिर्फ थियेटर से जुड़ा रहा। दोस्तों के पैसे से खाता था। उसमें एक अलग मजा था। आज एक सेलिब्रिटी बनने के बाद थियेटर में मेरे प्ले हो रहे हैं तो महंगे होने के बावजूद खुद-ब-खुद मेरे टिकट बिक रहे हैं।
-क्या है बर्फ में खास?
हम अक्सर सामाजिक-कॉमेडी से जुड़े मुद्दों पर ही नाटक बनाते हैं, ताकि लोग आएं देखें या तो हंसे या भावुकता से उससे जुड़ें। लेकिन हमारे यहां इस क्लासिकल दुनिया में एक जॉनर है थ्रिलर जिसकी बहुत कमी है। विदेश में इस पर बने बहुत से प्ले सुपरहिट हुए हैं। इसलिए कुछ अलग करने की कोशिश है 'बर्फÓ। असल मजा तो इस नाटक को देखने में ही आएगा लेकिन हां, यह बता सकता हूं कि कहानी कश्मीर की है। तीन किरदार हैं, बर्फ गिर रही है और कुछ भी हो सकता है। इस प्ले को भारंगम आयोजन में जबदस्त रिस्पांस मिला है। इसलिए अब 11 से 13 मार्च तक कमानी ऑडिटोरियम में चार से पांच शो किए जाएंगे।
-क्या बर्फ में कश्मीर की राजनीति या आतंकवाद का सच छिपा है?
बर्फ में कश्मीर का सैट है। लेकिन उसमें न तो उमर अब्दुला का नाम है न ही महबूबा मुफ्ती का और न ही आतंकवाद का नाम लिया गया है। लेकिन उसे समझेंगे तो उसमें उस जगह की राजनीति से लेकर आतंकवाद तक सबका प्रभाव नजर आएगा।
-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश विरोधी नारे लगाना कहां तक सही है?
इस मुद्दे पर स्पष्ट कुछ नहीं कह सकता क्योंकि बहुत ज्यादा इसकी गहराई में गया नहीं। इतना जरूर कहूंगा कि इस तरह के मुद्दों का राजनीतिकरण नहीं करना चाहिए। मैं सिर्फ देश को नहीं दुनिया को मानता हूं। यानी हम सब 'एक दुनिया' हैं। हमें उस तरह से ही सोचना चाहिए।
-एक्टर, राइटर और डायरेक्टर किसने सबसे अधिक पहचान दिलाई?
मेरे पास एक ही जीवन है, और मैं अगले जन्म पर यकीन नहीं करता। इसलिए इस जीवन में सब कुछ कर लेना चाहता हूं। इस फिल्मी दुनिया के अलावा मैं टेबिल टेनिस का भी अच्छा प्लेयर हूं, आज भी हर रोज चार घंटे टेनिस खेलता हूं। जहां भी जाता हूं वहां की फेडरेशन से जुड़कर खेलता हूं।
-किस किरदार ने पहचान दिलाई?
हर किरदार नया होता है। अलग अनुभव देता है। चाहे जॉली एलएलबी का जज त्रिपाठी हो या सत्या का कल्लू मामा। कभी इस बात को नहीं तौलता कि कौन सा कैरेक्टर ज्यादा अच्छा था। हां, लोग कल्लू मामा को याद करते हैं। जिस वक्त सत्या फिल्म आई थी मुझे कोई नहीं जानता था, लोगों को अच्छा काम दिखा। अब लोगों की उम्मीदें बढ़ गई हैं कि हमेशा अच्छा ही करूं इसलिए उस कसौटी पर हर किरदार को अनुभवों से और परिपक्वता से अदा करने की कोशिश करता हूं।
-आप कॉमेडी-सीरियस रोल एक साथ कैसे कर पाते हैं?
मैं सीरियस कॉमेडी करता हूं, कॉमेडी और सीरियस में कोई विभाजन नहीं है। मैं हर किरदार को एक शेड में नहीं करता। बहुत बोझिल हो जाता है या तो सिर्फ हंसते रहो या एकदम गंभीर। इसलिए आप हमेशा देखोगे मैं हर किरदार में सीरियस भी होता हूं और कॉमेडी भी करता हूं।