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दरअसल: सरहद पार के गांव बफा से सरहदी को बुलावा

1947 में विभाजन के बाद उनके परिवार को अपनी जान की हिफाजत के लिए उस गांव को छोड़ना पड़ा था। उनका परिवार कश्मीर के रास्ते दिल्ली पहुंचा था।

By Manoj VashisthEdited By: Published: Thu, 07 Jun 2018 02:36 PM (IST)Updated: Thu, 07 Jun 2018 02:36 PM (IST)
दरअसल: सरहद पार के गांव बफा से सरहदी को बुलावा

- अजय ब्रह्मात्मज

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‘कभी-कभी ,’चांदनी’,’सिलसिला’ और ’कहो...न प्यार है’ जैसी फिल्मों के लेखक और क्लासिक फिल्म ‘बाजार’ के लेखक-निर्देशक सागर सरहदी इन दिनों बहुत खुश हैं। उन्हें बुलावा आया है। उन्हें अपने मूल पैतृक निवास बफा से बुलावा आया है। बफा पाकिस्तान के मनेशरा ज़िले का एक खूबसूरत गांव है। इसी गांव में सागर सरहदी का जन्म हुआ। 1947 में विभाजन के बाद उनके परिवार को अपनी जान की हिफाजत के लिए उस गांव को छोड़ना पड़ा था। उनका परिवार कश्मीर के रास्ते दिल्ली पहुंचा था। और फिर अपने बड़े भाई के साथ वह मुंबई आ गए थे। भाई जितने संजीदा और ज़िम्मेदार…. सागर उतने ही लापरवाह और आवारा।

बुरी संगत, बुरी आदतें। संयोग ऐसा हुआ कि आवारगी के उन दिनों में उनकी मुलाक़ात इप्टा के रंगकर्मियों और शायरों से हो गयी। कैफी आज़मी और दूसरे कम्युनिस्ट और प्रगतिशील कलाकारों और शायरों की सोहबत में सागर भी लिखने लगे और अपना नाम गंगा सागर तलवार से बदल कर सागर सरहदी कर लिया। बहरहाल, जिस गांव से 71 साल पहले उन्हें निकलना पड़ा था। आज वही गांव उन्हें सम्मान से बुला रहा है। यह बताते हुए उनकी ख़ुशी छलकती है कि आज उस गांव के लोग उनके लेखक होने पर गर्व करते हैं। उन्हें जब पता चला कि कुछ मशहूर फिल्मों का लेखक और ‘बाजार’ का निर्देशक उनके गांव का है तो उन्होंने संपर्क किया।

कोई एक मिलने भी आया। उसने पूरे गांव की तरफ से उन्हें निमंत्रण दिया। सागर बताते हैं कि उसी व्यक्ति ने जानकारी दी कि गांव की एक गली में तख्ती लगी है कि सागर यहाँ गुल्ली-डंडा खेला करते थे। बफा छोड़ते समय सागर सरहदी की उम्र 13-14 साल रही होंगे। आज वे 84 के हो चुके हैं। अपनी सेहत को नज़रअंदाज कर वे बफा जाने के लिए के लिए उत्साहित और उतावले हैं। वहां की नदियां और पहाड़ उन्हें बुला रहे हैं। बचपन से आँखों में बसी गांव की धूमिल छवि अब साफ़ हो गयी है। वे अपने गांव की खूबसूरती का बखान करने लगते हैं। सचमुच स्मृतियाँ कभी बूढी नहीं होती। वे आज भी नियमित रूप से अपने दफ्तर पहुँचते हैं।

सायन कोलीवाड़ा के भगत सिंह नगर से लोकल ट्रेन और बस पकड़ कर अँधेरी पश्चिम के फ़िल्मी इलाके में आते हैं और शाम में लौट जाते हैं। साथ में एक थैला, उसमें कुछ किताबें और एक मोबाइल फ़ोन ज़रूर रहता है। दफ्तर में ज़्यादातर स्ट्रगलर लेखक,कलाकार और कुछ अन्य लोग उनसे मिलने आते हैं। दफ्तर का दरवाज़ा हमेशा खुला रहता है। सभी अपनी मर्जी से आते हैं। उन्हें कुछ बताते हैं, बतियाते हैं और चले जाते हैं। वे किसी को रोकते नहीं और न ही ठहरने को कहते हैं। ठहराव उनकी ज़िन्दगी में आ गया है। पहली निर्देशी फिल्म ‘बाजार’ का सीक्वल लिखा पड़ा है। ऐसा कोई निर्माता नहीं मिल रहा जो उनकी कहानियों को फिल्म की शक्ल दे सके। इसके बावजूद वे निराश नहीं हैं। नयी कहानियां पढ़ना, नए कलाकारों से मिलना और उम्मीदें गढ़ना उन्हें भाता है।

अच्छा ही है कि सागर सरहदी कम सुन पाते हैं। उन्हें पास में बैठे व्यक्ति की फुसफुसाहट नहीं सुनाई पड़ती। हाँ,वे सामने बैठे व्यक्ति की मुस्कराहट और आँखों से टपक रही सहानुभूति तो समझ लेते हैं। फिर हथेलियों और कलाइयों को यूँ भींचते हैं,ज्यों जता रहे हों कि इतनी भी दया न दिखाओ और न फालतू मुस्कराओ। उनके अगले ही वाक्य में एक गाली निकलती है और बोझिल हो रहे माहौल को हल्का कर देती है। मशहूरियत के वक़्त से वे निकल चुके हैं। फिल्म निर्माण में मिले धोखों से उनकी योजनाएं चकनाचूर हो चुकी हैं। कुछ सीधापन और कुछ उसूलों पर चलने की ज़िद्द ने उन्हें फिलवक्त ख़ारिज सा कर दिया है। अपने प्रति फिल्म इंडस्ट्री की उदासीनता का उन्हें कोई मलाल नहीं है। मौका मिलने पर वे अपने अनुभव और यादें शेयर करने से नहीं हिचकते।

उन्हें इस बात का गुमान भी है कि यश चोपड़ा जैसे काबिल निर्देशक ने उनकी लिखी पंक्तियों में कभी फेरबदल नहीं की। सिर्फ एक बार एक पंक्ति को छोटी करने के लिए कहा। सागर सरहदी ने जब ‘बाजार’ लिखी और अपने दोस्तों को सुनाया तो सभी ने बताया कि यह फिल्म नहीं बन सकेगी। अगर बन भी गयी तो बिलकुल नहीं चलेगी। हम सभी जानते हैं की ‘बाज़ार’ बनी और खूब चली। समय के साथ वह क्लासिक भी मान ली गयी। इस प्रसंग में सागर सरहदी यह बताना भी नहीं भूलते कि इस फिल्म का ट्रायल शो देखने के बाद ’गर्म हवा’ के डायरेक्टर एम एस सथ्यू ने हाथों को नाचते हुए कहा था... क्या बना दिया है?


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