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मिर्ज़ा और मोती: 47 साल बाद ‘फ़ातिमा बेगम’ ने लिया ‘महज़बीं’ का बदला, दिल और घर से बेदखल

Mirza And Moti अमिताभ बच्चन की 2020 की रिलीज़ ‘गुलाबो सिताबो’ और 1973 में आयी ‘सौदागर’ में वैसे तो कोई रिश्ता नहीं है मगर इन दोनों के मुख्य पात्र इनको जोड़ने वाली कड़ी बन गये हैं

By Manoj VashisthEdited By: Published: Sat, 13 Jun 2020 05:34 PM (IST)Updated: Sat, 13 Jun 2020 05:34 PM (IST)
मिर्ज़ा और मोती: 47 साल बाद ‘फ़ातिमा बेगम’ ने लिया ‘महज़बीं’ का बदला, दिल और घर से बेदखल
मिर्ज़ा और मोती: 47 साल बाद ‘फ़ातिमा बेगम’ ने लिया ‘महज़बीं’ का बदला, दिल और घर से बेदखल

नई दिल्ली (मनोज वशिष्ठ)। ''गुलाबो सिताबो का मिर्ज़ा दरअसल बहुत पुराना खिलाड़ी है। जो खेल वो इस फ़िल्म में फातिमा बेगम के साथ खेल रहा है, सालों पहले वही खेल मोती बनकर  सौदागर में मजूबी के साथ खेल चुका था। तब उस खेल में मोती को कामयाबी मिली थी, क्योंकि मजूबी पाक दिल की भली महिला थी। मोती के इरादों से बेख़बर विधवा मजूबी उसकी मोहब्बत को मेहरबानी मानकर उस पर सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार हो गयी थी।''

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अमिताभ बच्चन की 2020 की रिलीज़ ‘गुलाबो सिताबो’ और 1973 में आयी ‘सौदागर’ में वैसे तो दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है, मगर इन दोनों फ़िल्मों के मुख्य पात्र इनको जोड़ने वाली कड़ी बन गये हैं। सौदागर का मोती और ‘गुलाबो सिताबो’ का मिर्ज़ा एक ही सिक्के के दो पहलू लगते हैं। फ़र्क बस उम्र का है। 78 साल के मिर्ज़ा की हरकतों को देखते हुए ऐसा आभास होता है, मानो वो अपनी जवानी में मोती ही रहा होगा। आइए, पहले आपको मोती से मिलवाते हैं, पर इसके लिए 47 साल पीछे लौटना होगा। इसके बाद मिर्ज़ा की ख़बर लेंगे।

1973

मोती एक गांव में व्यापारी है, जो खजूर से बना गुड़ बेचता है। गांव के बाज़ार में जब वह गुड़ से भरा अपना पल्ला लेकर पहुंचता है तो मक्खियों से पहले ग्राहक उसके गुड़ तक पहुंच जाते हैं। दोपहर होने से पहले मोती अपना सारा गुड़ बेच दूसरे व्यापारियों को हैरान छोड़कर बाज़ार से निकल जाता है।

मोती के इस लज़ीज़ गुड़ का ट्रेड सीक्रेट है महज़बीं यानि मजूबी। गांव की एक विधवा, जिसके हाथों में ख़ुदा की नेमत है। उसके हाथों बना गुड़ ग्राहक को अंगुलियां चाटने के लिए मजबूर कर देता है। मोती, मजूबी का बना गुड़ ही बेचता है। मगर, इसके लिए उसे मजूबी को पैसे देने पड़ते हैं।

अगर मोती और मजूबी एक हो जाएं तो सोचिए धंधा कहां पहुंचेगा। यही सोचकर मोती मजूबी से निकाह कर लेता है। जैसा सोचा था, बिल्कुल वैसा ही होने भी लगता है। मजूबी अब बीवी बन चुकी है, लिहाज़ा मोती को गुड़ बनाई भी नहीं देनी पड़ती। यानि इनवेस्टमेंट घट गया और इनकम बढ़ गयी। स्मार्ट बिज़नेस मूव।

मगर, मोती तो मोती है। वो बहुत बड़ा उद्योगपति बनने के लिए गुड़ का धंधा नहीं कर रहा। उसने मजूबी के संग इसलिए भी ब्याह नहीं रचाया ताकि गुड़ के व्यापार को नई ऊंचाइयों तक लेकर जाए। तो फिर क्या था मोती का मक़सद? मोती को दरअसल फूल बानो यानि फूल जहां से शादी करनी थी, जिसकी तिरछी निगाहों पर वो पहली नज़र में ही मर-मिटा था। उसकी ख़ूबसूरती देखने के बाद मोती के सिर पर बस एक ही जुनून सवार हो गया कि जल्द से जल्द उसे अपना बनाना है। मगर, यहां एक अड़चन थी।

फूल बानो को अपना बनाने के लिए मोती से मेहर की जो रकम मांगी गयी थी, वो उसके पास नहीं थी। तब ‘सौदागर’ मोती के खुराफ़ाती दिमाग में यह साजिश जन्म लेती है। वह मजूबी से शादी करके अपने गुड़ के व्यापार को बढ़ाता है। मेहर की रकम इकट्ठा करता है। फिर मजूबी को तलाक़ देकर फूल जहां से शादी कर लेता है। मिशन सक्सेसफुल।

2020

अब मिर्ज़ा की बात...

मिर्ज़ा 78 साल का शातिर, कंजूस, काइयां और पैसे को दांत से पकड़कर रखने वाला बुड्ढा है। पैर कब्र में हैं, मगर दिमाग में साजिशों का कारखाना फुल रफ़्तार से जारी है। अपने से 17 साल बड़ी नवाबों के खानदान की वारिस फ़ातिमा बेगम से सिर्फ़ इसलिए निकाह करता है, क्योंकि उसकी नज़र बेगम की हवेली फ़ातिमा महल पर है।

बेगम 95 की होने वाली हैं। इसलिए अब उनके मरने का इंतज़ार कर रहा है कि वो मरें और हवेली उसके नाम हो जाए। ख़ुद 78 का है। कमर झुकने से लम्बाई आधी हो चुकी है। सांस कब बंद हो जाएगी, उसे भी नहीं मालूम। फिर भी हवेली का लालच उसकी आंखों में चमक और चाल में फुर्ती ला देता है।

मगर, मिर्ज़ा को यह नहीं मालूम, अगर वो डाल-डाल है तो बेगम पात-पात। जर्जर हवेली के बरामदे में अपना अधिकतर वक़्त गुज़ारने वाली बेगम मिर्ज़ा की साजिशों को भांप लेती हैं, मगर मिर्ज़ा को इसकी भनक भी नहीं लगने देतीं। आख़िरकार, अपनी लाखों की हवेली सिर्फ़ एक रुपये में अपने पूर्व प्रेमी को बेचकर उसके साथ रहने चली जाती हैं।

याद कीजिए, मोती ने फूल बानो से निकाह करने के लिए मजूबी से शादी की थी और मक़सद पूरा होने के बाद उसे दूध में मक्खी की तरह अपनी ज़िंदगी से निकाल दिया था। कर्मों के फल का चक्कर पूरा हुआ। अब बेगम ने मिर्ज़ा को हवेली और अपनी ज़िंदगी से निकालकर मजूबी का बदला पूरा किया। मिशन सक्सेफुल।

सौदागर और गुलाबो सिताबो

सौदागर 1973 के अक्टूबर महीने में रिलीज़ हुई थी। इससे कुछ महीने पहले ही अमिताभ बच्चन की ज़ंजीर रिलीज़ हो चुकी थी और महान कवि डॉ. हरिवंश राय बच्चन के सुपुत्र हिंदी सिनेमा के पहले एंग्री यंग मैन का खिताब पाकर देश के नौजवानों के दिलों पर राज करने लगे थे।

देश के सिनेमा में एक सुपरस्टार का उदय हो गया था। उस लिहाज़ से ‘सुपरस्टार अमिताभ’ की सौदागर पहली ऑफबीट फ़िल्म कही जा सकती है। इसके बाद उन्होंने कुछ फ़िल्मों में नेगेटिव भूमिकाएं तो निभायीं, मगर मोती जैसा किरदार नहीं दोहराया। ‘गुलाबो सिताबो’ देखकर आभास होता है कि मोती लौट आया है।

'सौदागर' समीक्षकों द्वारा सराही गयी थी। नूतन ने महज़बीं और पद्मा खन्ना ने फूल बानो का रोल निभाया था। फ़िल्म का एक गाना 'सजना है मुझे सजना के लिए' आज भी हिट है। 46वें अकादमी पुरस्कारों (ऑस्कर) की विदेशी भाषा श्रेणी में भारत की ओर से सौदागर आधिकारिक प्रविष्टि भी थी। हालांकि, नामांकन के लिए चयनित नहीं हो सकी थी।

सौदागर का निर्देशन सुधेंदु रॉय ने किया था, जो जाने-माने बंगाली फ़िल्ममेकर थे। संयोग से गुलाबो सिताबो के निर्देशक शूजित सरकार भी बंगाली फ़िल्ममेकर हैं। सौदागर की सिनेमैटोग्राफी दिलीप रंजन मुखोपाध्याय ने की थी। गुलाबो सिताबो के सिनेमैटोग्राफर अविक मुखोपाध्याय हैं।

सौदागर मशूहर बंगाली साहित्यकार नरेंन्द्रनाथ मित्रा की कहानी रस पर आधारित थी। फ़िल्म का स्क्रीनप्ले सुधेंदु रॉय ने लिखा था और संवाद पीएल संतोषी (राजकुमार संतोषी के पिता) के थे। गुलाबो सिताबो की कथा, पटकथा और संवाद जूही चतुर्वेदी ने लिखे हैं। देखना चाहें तो सौदागर भी अमेज़न प्राइम पर उपलब्ध है।


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