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International Women's Day 2019: वो औरत जिसकी सोच और हिम्मत ने बदल दिया भारतीय सिनेमा का नक्शा!

International Womens Day 2019 पर फ़ात्मा बेगम जैसी फ़िल्मकारों को याद करना इसलिए भी ज़रूरी होता है क्योंकि उन्होंने ख़्वाब ना देखा होता तो आज इंडस्ट्री को ज़ोया या मेघना नहीं मिलतीं।

By Manoj VashisthEdited By: Published: Wed, 08 Mar 2017 12:26 PM (IST)Updated: Sat, 09 Mar 2019 08:55 AM (IST)
International Women's Day 2019: वो औरत जिसकी सोच और हिम्मत ने बदल दिया भारतीय सिनेमा का नक्शा!
International Women's Day 2019: वो औरत जिसकी सोच और हिम्मत ने बदल दिया भारतीय सिनेमा का नक्शा!

मुंबई। International Women's Day 2019 दुनियाभर में आज (8 मार्च) को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जा रहा है। दूसरे क्षेत्रों की तरह फ़िल्म इंडस्ट्री के विकास में महिलाओं ने अहम भागीदारी निभायी है। उस दौर में भी, जब सिनेमा और इसमें काम करने वालों को अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता था, महिलाओं ने बढ़चढकर भाग लिया और अपने योगदान से इसे वहां तक पहुंचाया, जहा यह आज वर्ल्ड सिनेमा को टक्कर दे रहा है। 

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सिनेमा के लगभग हर दशक में महिला फ़िल्मकारों ने अपनी सशक्त मौजूदगी दर्ज़ करवायी है। सिनेमा के सबसे अहम और मुश्किल समझे जाने वाले विभाग निर्देशन में भी महिला फ़िल्मकारों का अमूल्य योगदान रहा है। कई अदाकाराओं ने पहले पर्दे पर, फिर पर्दे के पीछे डायरेक्शन के ज़रिए फ़िल्मों को नये आयाम दिये। आज ज़ोया अख़्तर, मेघना गुलज़ार, शोनाली बोस, अलंकृता श्रीवास्तव, गौरी शिंदे, अश्विनी अय्यर तिवारी जैसी महिला निर्देशक इंडस्ट्री में अपनी धाक जमाये हुए हैं, मगर क्या आप जानते हैं कि इसकी शुरुआत कैसे हुई? भारतीय सिनेमा में किस महिला कलाकार ने सबसे पहले यह सोचा कि वो निर्देशन भी कर सकती हैं, कैप्टन ऑफ़ द शिप बन सकती हैं। इस लेख में उन्हीं की चर्चा।  

सिनेमा के जानकारों के मुताबिक़, फ़ात्मा बेगम को हिंदी सिनेमा की First Woman Director माना जाता है, जिन्होंने बीसवीं सदी के दूसरे दशक में कई फ़िल्मों को लिखा और डायरेक्ट किया था। फ़ात्मा ने अपना करियर उर्दू स्टेज से शुरू किया था। बाद में उन्होंने फ़िल्मों का रूख़ बतौर एक्ट्रेस किया। फ़ात्मा ने अर्देशीर ईरानी की 1922 में आई मूक फ़िल्म वीर अभिमन्यु से सिनेमा की ब्लैक एंड वहाइट दुनिया में क़दम रखा था। उस दौर में नाटकों और फ़िल्मों में महिलाओं के किरदार भी ज़्यादातर पुरुष ही निभाते थे। एक्ट्रेसेज की कमी के दौर में फ़ात्मा रातोंरात सुपरस्टार बन गईं। 

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मज़ेदार तथ्य ये है कि फ़ात्मा काफी गोरी थीं, पर्दे पर लिहाज़ा ब्लैक एंड व्हाइट इमेजेज के हिसाब से उन्हें डार्क मेकअप करना होता था। कहानियां माइथॉलॉजिकल होती थीं, लिहाज़ा एक्टर और एक्ट्रेसेज को विग लगाने होते थे। 1926 में फ़ात्मा ने अपने बैनर फात्मा फ़िल्म्स की बुनियाद रखी, जिसे बाद में विक्टोरिया-फ़ात्मा फ़िल्म्स के नाम से जाना गया। 

फ़ात्मा की फ़िल्मों की ख़ासियत उनकी फैंटेसी होती थी। ट्रिक फोटोग्राफी के ज़रिए सिनेमा में स्पेशल इफे़क्ट्स डाले जाती थी। फ़ात्मा अपने बैनर तले फ़िल्में बनाने के साथ दूसरे स्टूडियोज़ के लिए भी बतौर एक्ट्रेस काम करती रहीं। जैसा कि आज प्रियंका चोपड़ा और अनुष्का शर्मा जैसी एक्ट्रेसेज कर रही हैं। 

1926 में फ़ात्मा बेगम ने अपनी पहली फ़िल्म 'बुलबुल-ए-परिस्तान' डायरेक्ट की। इसके साथ ही वो भारतीय सिनेमा की पहली वुमन डायरेक्टर बन गईं। ये एक बड़े बजट की फैंटेसी फ़िल्म थी, जिसमें स्पेशल इफ़ेक्ट्स का काफी इस्तेमाल किया गया था। 1938 में वो आख़िरी बार किसी फ़िल्म में बतौर एक्ट्रेस नज़र आईं। फ़िल्म का ना था- दुनिया क्या है? बेगम की आख़िरी डायरेक्टोरियल फ़िल्म Goddess Of Luck मानी जाती है, जो 1929 में आई थी। 

फ़ात्मा बेगम की बेटी का नाम ज़ुबैदा था, जिन्होंने कई मूक फ़िल्मों में काम करने के बाद पहली बोलती फ़िल्म आलम आरा में फ़ीमेल लीड रोल निभाया था। फ़ात्मा बेगम ने 1983 में 91 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कहा था।


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