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Dussehra 2021 : इन बॉलीवुड फिल्मों में दिखाए गए दिखाए गए दशहरा के दृश्य, बुराई पर हुई अच्छाई की जीत

Bollywood Movies Based On Dussehra स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के उल्लास के साथ ही आज विजयादशमी पर रावण दहन करते हुए हम बुराई और अन्याय के प्रतिकार का संकल्प दोहराएंगे। सिनेमा चूंकि समाज का आईना है इसलिए...

By Nazneen AhmedEdited By: Published: Fri, 15 Oct 2021 01:06 PM (IST)Updated: Fri, 15 Oct 2021 01:06 PM (IST)
Photo credit - Bhajrani Bhaijan poster and ajay devgn insta

स्मिता श्रीवास्तव व प्रिंयर्का सिंह, जेएनएन। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के उल्लास के साथ ही आज विजयादशमी पर रावण दहन करते हुए हम बुराई और अन्याय के प्रतिकार का संकल्प दोहराएंगे। सिनेमा चूंकि समाज का आईना है, इसलिए आजादी से पहले अंग्रेजों के शोषण का विरोध करने के साथ ही भारतीयों के दिलों में स्वाधीनता की अलख जगाने वाली कथावस्तु हमारी फिल्मों के केंद्र में रहीं। आजादी मिलने के बाद तरक्की की सीढ़ियां चढ़ने के साथ ही फिल्मों का मिजाज बदला, पर बाल विवाह, जातिवाद, अस्पृश्यता जैसी बुराइयों का विरोध और सामाजिक सरोकार हमेशा से फिल्मों के केंद्र में रहे।

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कहानी किसी भी जॉनर की हो, अंत हमेशा बुराई पर अच्छाई की जीत से होता है। फिल्मों के इस मिजाज की पड़ताल कर रही हैं स्मिता श्रीवास्तव व प्रिंयर्का सिंह...

साल 1936 में अशोक कुमार और देविका रानी अभिनीत फिल्म ‘अछूत कन्या’ का निर्देशन फ्रांज आस्टेन ने किया था। यह फिल्म महात्मा गांधी के सुधार आंदोलन से प्रेरित थी। यह एक ब्राह्मण लड़के और अछूत लड़की की प्रेम कहानी थी। सुनील दत्त, नूतन अभिनीत और विमल राय निर्देशत फिल्म ‘सुजाता’ और हाल के वर्षों में अनुभव सिन्हा द्वारा निर्देशित ‘आर्टिकल 15’ भी इसी मुद्दे पर आधारित थी। बी आर चोपड़ा ने विधवा विवाह को समाज में स्थान दिलाने के उद्देश्य से ‘एक ही रास्ता’ फिल्म बनाई।

राज कपूर की फिल्म ‘प्रेम रोग’, दीपा मेहता की फिल्म ‘वॉटर’ भी इस कुरीति पर सवाल उठाती नजर आई। प्रकाश झा की फिल्म ‘दामुल’ में अमीरों द्वारा गरीबों का शोषण दर्शाया गया तो ‘मातृभूमि’ फिल्म में कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ आवाज उठाई गई। ‘लज्जा’ फिल्म में महिलाओं के प्रति दोहरी मानसिकता पर प्रहार था, वहीं ‘थप्पड़’ में एक महिला के आत्मसम्मान की लड़ाई नजर आई। अब भी कई फिल्में इन मुद्दों पर बन रही हैं, क्योंकि कहीं न कहीं कुरीतियों बुरे विचारों से आजादी अब भी बाकी है। इनका दहन करना बाकी है।

फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे कहते हैं, ‘सामाजिक विषय हमेशा से ही फिल्ममेकर्स को लुभाते रहे हैं। हिमांशु राय द्वारा निर्मित फिल्म ‘अछूत कन्या’, वी शांतराम की फिल्म ‘आदमी’, और ‘पड़ोसी’ में इन कहानियों को दिखाया गया है। यह क्रम हर कालखंड में जारी रहा है। राज कपूर ने अपने 45 साल का सिनेमा इन विषयों पर ही रखा है। सबमें कुछ न कुछ सामाजिक संदर्भ ही रहा है। चाहे ‘प्रेम रोग’ रही हो या ‘राम तेरी गंगा मैली’। उसके बाद के फिल्मकारों ने भी सामाजिक अस्पृश्यता पर प्रहार करती फिल्में बनाई हैं। प्रकाश झा की ‘मृत्युदंड’ और ‘गंगाजल’ भी उसी मिजाज की फिल्म है। आने वाले समय में ओटीटी पर इस तरह के विषय को उठाना आसान होगा।’

सामाजिक बुराई का हो अंत:

भारतीय त्योहार बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश देते हैं। इन त्योहारों को बहुत उमंग और उत्साह से बड़े पर्दे पर दर्शाया जाता है। साल 2018 में रिलीज फिल्म ‘दशहरा’ का निर्देशन करने वाले निर्देशक मनीष वात्सल्य वास्तविक मुद्दों पर फिल्में बनाना पसंद करते हैं। वह कहते हैं, ‘दशहरा हमारे देश का सबसे अहम त्योहार है। जैसे-जैसे हम उत्तर भारत की ओर बढ़ते हैं, इस त्योहार का महत्व नजर आएगा। बचपन में दशमी के दिन हम मेला देखने जाते थे। जिस माहौल में बड़े होंगे, उन अनुभवों को फिल्मों में डालेंगे ही। वह अनुभव आप कई तरीके से फिल्मों में डाल सकते हैं, क्योंकि हमारी फिल्में हमेशा से बुराई पर अच्छाई की जीत दिखाती आई हैं। कई सामाजिक बुराइयां या इंसानी भाव हैं, जिनका अंत फिल्मों में करके इस त्योहार के मूल संदेश को सार्थक किया जा सकता है।

हम फिल्ममेकर हैं, हम किरदार और कहानी के द्वारा अपना रोष व्यक्त कर सकते हैं। सिनेमा के माध्यम से समाज की मानसिकता पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं। सामाजिक बुराई पर प्रहार करने के लिए सिनेमा बेहतरीन माध्यम है।’

क्लाइमेक्स में सही संदेश जरूरी:

फिल्म ‘मरजावां’ में रावण दहन का दृश्य फिल्माया गया था। फिल्म के निर्देशक मिलाप जवेरी कहते हैं, ‘हम जिस माहौल में बड़े हुए हैं, ‘वह मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा, सुभाष घई, राकेश रोशन की कॉमर्शियल फिल्मों का रहा है। उन फिल्मों में धमाकेदार तरीके से बुराई का अंत होता आया है। मैंने सिनेमाहाल में उन फिल्मों को देखते हुए तालियां और सीटियां बजाई हैं। फिल्म ‘शोले’ में गब्बर हारता है। मैं जब कोई कहानी लिखता हूं तो कोशिश यही होती है कि इस किस्म का सिनेमा बनाऊं कि बुराई हारे। वह बुराई सिर्फ रावण दहन से खत्म नहीं हो सकती है। वह कोई भी ऐसी बुराई हो सकती हैं, जो समाज और देश के लिए सही नहीं। हम हमेशा यह संदेश देते हैं कि हीरो जीतेगा, विलेन हारेगा। हमारे जो दर्शक हैं, वे भी यही पसंद करते हैं। यही वजह है कि हिंदी फिल्मों में क्लाइमेक्स की बहुत अहमियत होती है, ताकि दर्शक जब फिल्म खत्म हो तो सही विचारों के साथ बाहर आएं।

‘मरजावां’ कमर्शियल हिंदी मसाला फिल्म थी, जिसकी कहानी बुराई पर अच्छाई की जीत की थी। इसका जश्न रावण के पुतले को जलाकर ही मनाया जा सकता था। फिल्म में रितेश देशमुख का किरदार रावण की तरह था। फिल्म में सिद्धार्थ का नाम रघु था, जो भगवान श्रीराम का ही एक नाम है। ये सारी चीजें फिल्म लिखते वक्त सोची थीं।’

दहन वाले दृश्यों का फिल्मांकन चुनौतीपूर्ण:

हालांकि दशानन का दहन करने वाले दृश्यों को फिल्मों में दिखाना चुनौतीपूर्ण होता है। मनीष कहते हैं, ‘कोरोना की वजह से इस त्योहार को फिल्माना मुश्किल है। उम्मीद है कि जल्द कोरोना पूरी तरह से खत्म हो जाएगा। जहां तक बात है ‘दशहरा’ फिल्म में रावण दहन को फिल्माने की तो हमने आर्ट डायरेक्टर से कहकर पुणे में मेले का सेट लगवाया था। पटाखे डालकर रावण के पुतले को बनाने में कई दिन लग गए थे। हमने ध्यान रखा था कि पुतला जलने के बाद किस तरफ गिरेगा ताकि किसी को नुकसान न पहुंचे। सुरक्षा के लिए हमने फायर ब्रिगेड पहले ही बुला रखी थी। दरअसल, रावण दहन के सीन में रीटेक नहीं कर सकते हैं, एक बार पुतला जलने लगा तो उसको रोका नहीं जा सकता है। सेट को दोबारा बनाना खर्चीला काम होता है। यही वजह है कि दशहरा सीन कोई भी फिल्ममेकर फिल्माता है तो रावण दहन का सीन आखिर में शूट किया जाता है।’

भीतर के रावण का वध करना है:

‘भवई’ फिल्म में रामलीला के नाटक में रावण का किरदार निभाने वाले अभिनेता प्रतीक गांधी कहते हैं, ‘जितने भी ग्रंथ हैं, चाहे रामायण हो या महाभारत, उनमें जो बातें लिखी गई हैं, वे हमें बताती हैं कि अपना जीवन कैसे बिताना चाहिए। अगर आप अपने अंदर की बुराइयों को मारकर अच्छाई अपनाते हैं तो आप श्रीराम की ओर बढ़ रहे हैं। अगर अच्छाई को मारकर बुराई की ओर बढ़ रहे हैं, तो आप रावण की ओर बढ़ रहे हैं। यह लड़ाई पूरी जिंदगी हमारे भीतर चलती ही रहेगी। दशहरा हर साल आता है। बुराई पर अच्छाई की जीत का यह पर्व हमें याद दिलाता है कि अपने भीतर के रावण का वध करना है।’

एक गाने में दिखाई गयी रामायण

करण जौहर की फिल्म ‘कलंक’ के गाने घर मोरे परदेसिया... में रामायण का पूरा दृश्य फिल्माया गया था। इसमें सीता और लक्ष्मण के साथ श्रीराम के वनवास जाने से लेकर रावण दहन के बाद अयोध्या लौटने वाला पूरा दृश्य फिल्माया गया था। रामायण पर बनी कई पेंटिंग्स को देखकर पहले सेट के स्केच बनाए गए थे। इस गाने को शूट करने के एक साल पहले सेट को लेकर काम शुरू कर दिया गया था।

इनमें थे दशहरा के दृश्य

‘स्वदेश’

‘दिल्ली 6

‘भूल भुलैया’

‘गोलियों की रासलीला रामलीला’

‘कहानी’

‘बजरंगी भाईजान’

‘कलंक’

‘दशहरा’

‘मरजावां’

‘भुज- द प्राइड ऑफ इंडिया’

सेट की वजह से बढ़ता है बजट

फिल्म ‘मरजावां’ के निर्देशक मिलाप कहते हैं, ‘दशहरा के सीन को फिल्माने में बड़े बजट की जरूरत होती है। हमने मुंबई में बस्ती का बड़ा सेट लगाया था। 50 फुट का रावण का पुतला बनाया था। पूरे सीक्वेंस को शूट करने में दस दिन लगे थे। फिल्म में रितेश का किरदार रावण का प्रतीक है तो नायक सिद्धार्थ मल्होत्रा का किरदार रघु श्रीराम को प्रतिबिंबित करता है।’ 


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