शोमैन ने दर्शकों को सिखाया जिदंगी का नया फलसफा
जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां..अपनी फिल्मों से लोगों को जिंदगी का एक अनोखा फलसफा सिखाने वाले शोमैन राजकपूर ने प्यार के एक अनूठे संगम से फिल्मी दुनिया में अपनी एक अलग ही पहचान बनाईं हैं। चाहे कहानी को फिल्माने का अंदाज हो या प्यारे गीत ये सब हमें राजकपूर की फिल्मों में एक साथ देखने को मिलते हैं।
नई दिल्ली। जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां..अपनी फिल्मों से लोगों को जिंदगी का एक अनोखा फलसफा सिखाने वाले शोमैन राजकपूर ने प्यार के एक अनूठे संगम से फिल्मी दुनिया में अपनी एक अलग ही पहचान बनाई। चाहे कहानी को फिल्माने का अंदाज हो या प्यारे गीत ये सब हमें राजकपूर की फिल्मों में एक साथ देखने को मिलते हैं।
हिन्दी फिल्मों में राजकपूर को पहला शोमैन माना जाता है क्योंकि उनकी फिल्मों में वो सब कुछ होता था जो लोगों के दिलों को छू जाए। दिल की हर बात को वो अपने एहसास से कुछ इस कदर बयां करते थे मानो जैसे शब्दों की जरूरत ही न हो।
हिंदी सिनेमा के इस महान शोमैन का जन्म 14 दिसंबर 1924 में पेशावर में हुआ था। राजकपूर हिंदी सिनेमा के वह शोमैन थे, जिन्होंने कई बार सामान्य कहानी पर इतनी भव्यता से फिल्में बनाईं कि दर्शक बार-बार आज भी उन्हीं फिल्मों को देखना चाहते हैं। आवारा, श्री 420, जिस देश में गंगा बहती है, प्रेम रोग, सत्यम शिवम सुदंरम जैसी फिल्में रोमांस और समाज की सच्ची कहानियों को बयां करती हैं।
शोमैन का सफर
1935 में, जब उनकी उम्र केवल 11 वर्ष थी, फिल्म इंकलाब में अभिनय किया था। वे बांबे टाकीज स्टूडियो में सहायक का काम करते थे। इसके बाद में वे केदार शर्मा के साथ क्लैपर ब्वॉय का काम करने लगे। उनके पिता पृथ्वीराज कपूर को भरोसा नहीं था कि राज कपूर अपनी जिंदगी में कोई मुकाम हासिल कर पाएंगे, इसलिए उन्होंने उसे सहायक या क्लैपर ब्वॉय जैसे छोटे कामों में लगवा दिया गया। केदार शर्मा ने राज कपूर के भीतर के अभिनय क्षमता और लगन को पहचाना और उन्होंने राज कपूर को सन 1947 में अपनी फिल्म नीलकमल में चांस दिया, जिसकी नायिका मधुबाला थी।
भारत के चार्ली चैपलिन थे राजकपूर
राजकपूर में महान अभिनेता चार्ली चैपलिन की झलक दिखाई देती है। उन्होंने चैपलिन को भारतीय जामा पहनाया जो बेहद लोकप्रिय और आकर्षक था, जिसने देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अपनी धाक जमाई। राजकपूर ऐसे शख्स थे जिन्होंने विदेश में भी लोकप्रियता हासिल की, रूस के लोग आज भी इस महानायक को याद करते हैं। राजकपूर एक संपूर्ण फिल्मकार के रूप में हिंदी सिनेमा का अहम हिस्सा बने रहे। उनकी फिल्मों में शंकर जयकिशन, ख्वाजा अहमद अब्बास, शैलेंद्र, हसरत जयपुरी, मुकेश, राधू करमाकर सरीखे नामों की अहम भूमिका रही। वे केवल फिल्मकार ही नहीं बल्कि एक संयोजक भी थे।
मेरा नाम जोकर उनकी सर्वाधिक महत्वाकांक्षी फिल्म थी जो कि साल 1970 में प्रदर्शित हुई। बॉबी फिल्म की सफलता के बाद राज कपूर ने अपनी अगली फिल्म सत्यम शिवम सुंदरम बनाई जो कि फिर एक बार हिट हुई। इस फिल्म के क्लाइमेक्स में बाढ़ का दृश्य था जिसे फिल्माने के लिये अपने खर्च से नदी पर बांध बनवाया और नदी में भरपूर पानी भर जाने के बाद बांध को तुड़वा दिया जिससे कि बाढ़ का स्वाभाविक दृश्य फिल्माया जा सके। इस दृश्य के फिल्मांकन हो जाने के बाद जब उसे राज कपूर को दिखाया गया तो दृश्य उन्हें पसंद नहीं आया और एक बार फिर से लाखों रुपये खर्च करके राज कपूर ने बांध बनवाया तथा उस दृश्य को फिर से शूट किया गया।
सत्यम शिवम सुंदरम के बाद राज कपूर की अगली सफल फिल्म राम तेरी गंगा मैली रही। राम तेरी गंगा मैली बनाने के बाद वे हिना के निर्माण में लगे थे जिसकी कहानी भारतीय युवक और पाकिस्तानी युवती के प्रेम सम्बंध पर आधारित थी।
अंतिम सफर
बतौर निर्माता-निर्देशक राजकपूर अंत तक दर्शकों की पसंद को समझने में कामयाब रहे। 1985 में प्रदर्शित राम तेरी गंगा मैली की कामयाबी से इसे समझा जा सकता है जबकि उस दौर में वीडियो के आगमन ने हिंदी सिनेमा को काफी नुकसान पहुंचाया था और बड़ी-बड़ी फिल्मों को अपेक्षित कामयाबी नहीं मिल रही थी। राम तेरी गंगा मैली के बाद वह हिना पर काम कर रहे थे पर नियति को यह मंजूर नहीं था और दादा साहब फाल्के सहित विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित महान फिल्मकार का दो जून 1988 को निधन हो गया।
आज हमारे बीच में राजकपूर नहीं है लेकिन उनकी सोच और विचार जरूर हमारे बीच में हैं, हां इसे समय की मार कहेंगे या दुर्भाग्य की आज आरके बैनर की हालत बेहद दयनीय है, आर के स्टूडियो ने आ अब लौट चले के बाद कोई फिल्म नहीं बनाईं है लेकिन हां अब राजकपूर की नवासी करीना कपूर ने फिर से आर के स्टूडियो यानी राजकपूर के सपने को जिंदा करने की कोशिश की है।
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